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Sunday 19 August 2018

थाह



थाह
विस्तृत जल है पास बहुत
गगन अनंत सिर ऊपर है
उड़ने की चाह भी मन में है
फिर किसने विहग को रोका है
फैलाता पंख उड़ने को
पल में इरादा बदलता है
उलझा है वो उलझन में !
मन मसोस रह जाता है
उड़ जाऊं या रुकूं यहीं !
सोच सोच रुक जाता है
मीन की चाह में बार बार
 मन बहला कर थम जाता है ..
हुई न चाह अब तक पूरी
बैठा बैठा थक जाता है
टुकुर-टुकुर तकते तकते
पास कहीं सो जाता है..
...
अनहद


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