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Friday 29 January 2016

तूफानी काका




तूफानी काका

मस्ती में थे हाथी काका
झूम रहे थे हाथी काका
सूंड उठाते कभी गिराते
   पत्तियां खा रहे थे काका ..

तभी पेड़ ने काका को टोका
पत्तियाँ खाते उनको रोका
गुस्से में हुए 'तूफानी' काका
  लपेट सूंड में पेड़ को फेंका..


तुम काका से पंगा ना लेना
हरी पत्तियां जी भर खिलाना
गन्ना शौक से खाते काका
  रोज नहीं तो कभी खिलाना...
.... विजय जयाड़ा

Thursday 28 January 2016

ठहर रे मन



ठहर रे मन 

ठहर ! रे मन बैठ
मन भर__
बतिया लूँ यहाँ
बहुत दिन हुए
बिछोह के
जीवन से मिल लूँ
कुछ पल अब यहाँ..
 
चलते फिरते हैं बुत
महानगरों के
सड़कों चौराहों पर,
दूभर हुआ
आदम से मिलना
घर में और चौबारों पर ..
बदला मनुज !!
मगर__
नहीं बदली प्रकृति
वो है यहाँ
ठहर ! रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ मैं अब यहाँ ....

मूक हैं तरु झाड़ घास
फिर भी
सरगम बहता यहाँ !
बोल हैं शहरों में बेशक
मगर___
उठती कर्कश ध्वनियाँ वहाँ !
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ में अब यहाँ ...

हैं पाषाण वो
प्रीत उनमें है यहाँ
ईंटों के जंगल में है बसर
मगर___
सुकून ऐसा कहाँ !
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ जीवन से यहाँ ...

भटकता फिर रहा
तू कहाँ कहाँ
बिछड़ा था जीवन
वो है यहाँ
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ उससे यहाँ ..
 
.. विजय जयाड़ा 28.01.16

Tuesday 26 January 2016

मिलन



>> मिलन <<

नर्म हसरतें
कल्पना की चिकनी
सतह पर
बहुत दूर तक
किनारे की चाह में
फिसलती चली गई
बिना रुके !
समय सरकता है
आगे बढ़ता है
भला उसे कौन
रोक सकता है!
किनारा ! हसरतों से बेपरवाह
लहरों के करीब
नर्म स्पर्श में खो गया!
हवाओं की
सरगम में रम गया
हसरतों से दूर
बहुत दूर होता गया !
हसरतें थक हार
बेढौल खुरदरे
पत्थर हो गई
रेत में धंस गई
किनारे की जिद में
स्थिर हो गई ! एक जगह !!
सोचकर !
किनारा उनके करीब
जरूर आएगा !!
सावन में !
उन्मादी लहरों के
कहर से जब
किनारा कराहेगा !
हवाओं का सरगम
भयानक स्वर बन
उसे डराएगा !
तब किनारा सिकुड़कर
हसरतों के पास
दौड़कर आएगा !!
दोनों का मिलन हो पायेगा !!
... विजय जयाड़ा 20.01.16

योगी



...... योगी ......

घायल अचंभित
परोपकारी
      किंकर्तव्यविमूढ़ ! ...
कुछ सोचता
अब मौन है
किया उसने
  ऐसा पाप क्या !
जड़ें उसकी
   हुई मिट्टी विहीन हैं !!
योगी है वो
निर्विकार निश्छल
उखड़ मिट्टी में अब
मिल जाना है,
नहीं शिकायत
किंचित् उसे,
चाह अब
उसकी यही
मर के भी
    कुछ दे जाना है ...
.. विजय जयाड़ा


Friday 22 January 2016

मूढ़ मन




मूढ़ मन

सदियों से अविरल सघन
अपनी धुन में सदा मृदुल मगन
जड़ चेतन सबका का प्राण वो
   बुझाती विचलित मन की अगन ...
 
निरंतर बह रही प्रवाहमयी
नहीं उसके मन में भेद कोई
वात्सल्यमयी हर बूँद उसकी
   पराया उसके लिए नहीं है कोई ..

घाट निषेध न उसने किया
पास आकर न प्यासा कोई रहा
सत्य बिखरा माँ गंगे ! तट तेरे
  मन मूढ मेरे ! क्यों भटकता रहा !
.. विजय जयाड़ा

Wednesday 20 January 2016

निकल पड़े सब सड़कों पर ..



निकल पड़े सब सड़कों पर
अंजाम ज़माना देखेगा !
गर बैठे रहे अब भी घर पर
इतिहास हमें धिक्कारेगा !!
... विजय जयाड़ा


लौटते बादल



>लौटते बादल<

एकान्त में दबे पाँव
उसका चले आना
और फिर
संग बिताये
पलों की यादों में
देर तक
दोनों का खो जाना
वक्त न जाने कब
पंख लगाकर उड़ गया !
मगर ___
अचानक उसका
बिछुड़कर फिर कभी
वापस न आ सकने की
मजबूरी__
रुंधे स्वर में बताकर
एकाएक
पलटकर चल देना !!
जैसे सावन में
पनेरे बादलों का
पास आकर भी
बिन बरसे लौट जाना !!
जो बरसेंगे तो जरूर
मगर यहाँ नहीं !!
कहीं और !!
मुझसे दूर ! बहुत दूर !!
.. विजय जयाड़ा . 12.01.16

यादें बन जाते हैं कुछ लम्हे



यादें बन जाते हैं कुछ लम्हे
निशाँ हवाओं में रह जाते हैं
गुज़रा था मुसाफिर इधर से
रास्ते कुछ यूँ बयान करते हैं..
.. विजय जयाड़ा 


साहिल से टकरा कर कब ....



साहिल से टकरा कर कब ठहरी है मौजों की मस्ती !
टकराना उनकी फितरत, चोट देना साहिल की हस्ती !!
.. विजय जयाड़ा

 

बल्द्युं मिजाज



मौसम के इस बदली युक्त ठंडे मिजाज पर गढ़वाली में एक प्रयास .. " बल्द्युं मिजाज " .. हिंदी भावार्थ के साथ .. सादर

>बल्द्युं मिजाज<

सर्ग दिदा कु देखा
मिजाज बल्द्युं छ
दिनमान ठंड अर
   कुएड़ु भी लग्युं छ ..

सर्या ह्यूंद मफलर
बक्सों मा धरयां छा
अब मौल्यार एगि
   टोपलु भी खुजौणा छां !!


ठंड फिर बौड़ै तैं
नया साल मा ऐगि
सर्ग दिदा कु देखा
    मिजाज बदळ गि ...


यनु लग्दु अब तक
ह्युंद दोब बैठ्युँ छौ !
छुट्टी खतम होणा कु
   इंतजार कन्नु छौ !!
.. विजय जयाड़ा 19.01.16
...........................
हिंदी भावार्थ ..
>बादली मिजाज<
मौसम का मिजाज देखो
बादली हो गया है
दिन भर ठंड और
कुहरा भी लग गया है

सर्दियों में मफलर
बक्सों में रखे रहे
अब माघ आया तो
टोपी भी खोज रहे !!

ठण्ड लौट कर
नए साल में आ गयी
मौसम का देखो
मिजाज बदल गया

ऐसा लगता है अब तक
सर्दी घात लगाए बैठी थी !
छुट्टी ख़त्म होने का
इंतज़ार कर रही थी !!