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Sunday 29 May 2016

बदले हुए ज़माने में ..





बदले हुए ज़माने में,तरक्की क्या खूब हुई है !
मज़हब कई थे मगर, अब सिर्फ दो ही वो है !
इक तरफ पसरी है मज़ल्लत भरी मुफलिसी ,
शानो शौकत से लवरेज, सरमायेदारी कहीं है !
रोटी कहीं पूजा , तो कहीं इबादत यही है,
जुल्मों से अब होते ..... रोज़ सज़दे कहीं हैं !

^^ विजय जयाड़ा 30-05-14

मन की अभिलाषा



मन की अभिलाषा

महलों की किलकारी न सही , 
भूखे शिशु का रूदन स्वर बन
परहेज़ तुझे हो घुँघरू से तो 
अबलाओं का स्वर तू बन
न भाग्य भरोसे बैठ कभी ,
कृषकों का मधुर गीत तू बन
आँगन में खिलता पुष्प नहीं ,
घने वृक्ष का स्वर तू बन
कायर के शब्द का मोल कोई ? 
रणवीरों की हुंकार तू बन
विश्वास यदि श्रम पर तुझको , 
तो मजदूरों का स्वर तू बन
हो सरल झूठ का मार्ग मगर
 तू सदा सत्य की वाणी बन
गर माँ का स्वर बनना चाहे , 
भारत माता का स्वर तू बन
पिंजरे में पंछी क्या गाये , 
उन्मुक्त विहग का गीत तू बन
सूखी धरती जब प्यासी हो , 
शीतल वर्षा का स्वर तू बन
हो कोई दुखी संतप्त यदि , 
तो अपनेपन का स्वर तू बन
अपनी वाणी को शब्द तो दे , 
अब तोड़ मौन का ये बंधन
धीरज, आशा और नव उमंग का 
गौरवशाली स्वर तू बन

^^^ विजय जयाड़ा 24.05.13


Friday 20 May 2016

सुन कसीदे मयखाने के तेरे ,



सुन कसीदे मयखाने के तेरे ,
दौड़े चले आये हम
अब तेरी रज़ा है साक़ी,
मदहोश कर या चले जाएँ हम ...

... विजय जयाड़ा

मजदूर ..



मजदूर ..

काम की तलाश में
मुंह अँधेरे
भोला निकल पड़ा,
चौक पर आते थे
      तलाश में मजदूरों की .....
गाड़ियों से उतरते थे
लकधक् लिबास में,
वो देखता हर एक को
हसरत भरी निगाह से,
तलाश मजदूर की थी मगर
दिल के सभी तंग थे !
आँखों में शाम को
इंतज़ार में खड़े
बच्चों की तस्वीर थी !
दिन चढ़ रहा था
काम न मिल पाने की
बैचेनी का ज्वार था ,
आखिर में उदास भोला को
काम मिल ही गया !
बुझती आँखों में जैसे
सुन्दर सपना संवर गया.
शाम को दुकान पर
सीधे पहुँच गया,
चूल्हा जलाने की जुगत में
कुछ लिया, कुछ न ले सका.
बच्चों को खिला
अधपेट खा के पानी पी लिया.
भरपेट खा के, दुनिया बचाती है
गाडी, मकान के लिए !!
अनिश्चितता में कल की,
थाली की ही दो रोटियां बचा के
भोला, निश्चिन्त सो गया ! निश्चिंत सो गया !!

^^ विजय जयाड़ा.. 21.05.14


मंहगाई का जिन्न...



मंहगाई का जिन्न...
अब, पूरा आजाद है !
बोतल बंद होने का..
खौफ सताता नहीं उसे !!
'राष्ट्रवाद'.... 'धर्म'...
अब हुए उसके संग हैं !!

.... विजय जयाड़ा


बुरांश



बुरांश

रौद्र रूप में आज योद्धा
दुर्गम ऊँचाई पर आ डटा
सुगंध छल ले गयी हवाएं
लौट अब तक आई नहीं..
रक्तवर्ण हो रहा क्रोध में
उन हवाओं के इंतज़ार में..
घंटियाँ भी सुनसान सी हैं
सुर बहका ले गया कोई..
सूनी सी अब घंटियाँ हैं !
सुर लौट आने के इंतज़ार में ..
लौटा दो छलिया हवाओं
खुशबु तुम वीर बुरांश की
सुर बहका ले जाने वाले
घंटिया बजने दो बुरांश की ...
बुरांश के रक्तिम क्रोध से
सघन वन पूरा सहमा हुआ !!
धीरे – धीरे पूरा सघन वन
वीर बुरांश के क्रोध से मानो...
आज फिर दावानल हुआ !! 

.... विजय जयाड़ा 03.04.15

Thursday 19 May 2016

गुजर जाते हैं जो लम्हे ..



गुजर जाते हैं जो लम्हे
  लौट कर फिर नहीं आते !
यहीं थम कर बतिया लें
   ये मौसम फिर नहीं आते !!

.. विजय जयाड़ा


Tuesday 17 May 2016

हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !



  हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !

पुष्प आच्छादित रमणीक मनोरम
अल्हड़ हरीतिमा चहुँ ओर
प्रसन्न मन बलखाती पर्वत श्रृंखलाएं.
वृक्षों पर खग नीड़
कल-कल बहते जल प्रपात
जीवन प्रदायक और संरक्षक
पर्वत श्रृंखलाएं अनुपम नयनाभिराम !!
सहस्तित्व का देती सन्देश,
जहाँ जल, जल ही रहकर
बुझाता है प्राणियों की तृष्णा,
वृक्ष पंछियों आसरा
मिलजुल कर करते हैं
तूफानों का सामना !!
सुनसान हिमाच्छादित
संवेदना रहित
वह जड़ "उच्च शिखर",
जहाँ जल,बन "कठोर हिमखंड",
तृष्णा शांत करने में है असमर्थ !!
मिलता नहीं जीवों को आसरा.
वृक्षों और पक्षियों के कलरव का अभाव !!
मिलती है सदा संवेदना रहित
भयावह नीरवता और जड़ता
विवश है वह जड़ " उच्च शिखर " !!
तूफानों से जूझने को अकेला,
हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !!!
जहाँ रहना और जूझना पड़े अकेला...
बन न सकूँ किसी का सहारा !!!!
मुझे तो बनाना है
रमणीक मनोरम पर्वत श्रंखला !! 

^^ विजय जयाड़ा 18.05.14

जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!



व्हाट्स एप्प पर हास्य पुट लिए वार्तालाप का आप भी काव्य रूप में आनंद लीजिए

एक मोहतरमा ने घुमक्कड़ी पर मुझसे संजीदगी से पूछा ..

आग बरस रही सूरज से
कैसे गर्मी को झेल पाते हो !
गर्मी में भी भ्रमण पर रहते
बरदाश्त कैसे कर पाते हो !!

मैंने जवाब दिया ..

गर्मी सर्दी से क्या डरना
दोनो ही मुझसे घबराते हैं !
श्याम वर्ण चेहरे को मेरे
जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!
.. विजय जयाड़ा
 
 

वन उपवन तुम ....



वन उपवन तुम उड़ती रहती
किसी फूल पर नहीं ठहरती
विश्राम करो अब है मधु रानी !
सारा दिन तुम मेहनत करती !!

... विजय जयाड़ा

              सफ़र में बेटी दीपिका ने लम्बे धैर्य के बाद आखिरकार जंगल में छोटे-छोटे फूलों पर मंडराती, ना-नुकुर करती इस मधुमक्खी को कैमरे में कैद कर ही लिया !!


डाळियों पर ...



डाळियों पर
जौंद्याल पड़ग्यन !
बल_ सड़क चौड़ी होणी छ,
कुज्याणी कब__
यन छैळु मिल्लु !
सोचि_ ज्युक्ड़ी खुदेणि छ !! 

... विजय जयाड़ा
( जौंद्याल = बलि देने से पूर्व पशु पर डाले जाने वाले अभिमंत्रित चावल )
 
 

दिल्ली बिटि अयुँ छ !!



दिल्ली बिटि अयुँ छ !!

दिल्ली बिटि अयुँ छ
गौं मा शान दिखौणु छ
कभि कपड़ों कु ब्रांड __
कभि कीमत बतौणु छ !
लगायुं छ काळु चश्मा
गौं मा हीरो बण्युँ छ
बढ़ीं चढ़ीं छुईं लगौणु
बस फट्टि मान्नु छ !
देखा वेकि चाळ ढ़ाळ
विदेशी बण्युँ छ
सेवा सौंळि छोड़िक्
हाय हैल्लो कन्नु छ !
नाता रिश्ताों की__
बात नि करा
सेकुलर बण्युं छ
दाना ज्वान सब्यों तैं
आंटी अंकल भट्याणु छ !!
दिल्ली बिटि अयुँ छ
गौं मा शान दिखौणु छ
कभि कपड़ों कु ब्रांड __
कभि कीमत बतौणु छ !

                                                                 .. विजय जयाड़ा
  
                 दरअसल एक गाँव में शादी में गया था वहां आँखों देखी को शब्द रूप में लिखने का मन हुआ ! रचना में उन लोगों का व्यवहार वर्णित है... जिनकी एक-दो पीढ़ी महानगरों में आकार बस गई थीं उन्होंने बहुत संघर्ष किया. अब उनकी दूसरी तीसरी पीढियां यहाँ के वातावरण में रच बस गयी हैं.. समय के साथ वे अब संसाधन संपन्न भी हो गए.कुछ वर्तमान पीढ़ी के लोग ही नहीं बल्कि मेरी उम्र के कुछ लोग भी जब शादी, पूजा आदि कार्यों के अवसरों पर अपने गाँव पहुँचते हैं तो सीमित संसाधनों में भी संतुष्ट, गाँव वासियों पर अपनी ओछी हरकतों और बढ़ी-चढ़ी बातों से महानगर की चकाचौंध और अपनी सम्पन्नता की धौंस जमाना चाहते हैं.

स्नेहासिक्त जन-जीवन हो......



स्नेहासिक्त जन-जीवन हो

दंभ, दर्प यथेष्ट नही
अभिप्रेत आचरण उचित नही,
संत्रास मुक्त जन-जीवन हो
अतिरंजना स्पृहणीय नहीं.
अनुभूतिसिक्त उदयांचल हो,
पुष्पित वसुधा के
ममतामयी आँचल में,
करुणापूरित अस्तांचल हो.
त्याग संवलित मनोदशा
अनावरणित जन-जीवन हो.
सुर-सरिता लावण्य भरी
शुभ भावों का आरोहण हो,
त्याग परस्पर बैर भाव..
    स्नेहासिक्त जन-जीवन हो...... 

^^ विजय जयाड़ा 17/05/14

( दंभ= इगो दर्प =अभिमान , यथेष्ट.=उचित, अभिप्रेत= जानबूझकर intentionally, संत्रास = डर,भय, अतिरंजना= अतिश्योक्ति , स्पृ्हणीय = श्रेष्ठ . उत्तम )

Sunday 15 May 2016

मैं सत्य हूँ .....



   मैं सत्य हूँ

संवेद्य हूँ
उद्घाटित स्वयं को करता नहीं,
अकिंचन की आस हूँ
चुनौती प्रस्तुत करता हूँ सदा,
परत दर परत उघड़ना ही नियति है
अनवरत चलते हुए.
अविच्छिन्न बिम्ब हूँ
विच्छिन्न सा लगता सदा,
आडम्बरों और भ्रम-जाल को
तोड़ने का बल मुझमे बसा.
सार बाल-तरुण-यौवन-बुढ़ापे का
सब मुझमें रमा !!
हारे हुए की साँस हूँ
अनादि .. अनंत ..अविनाशी हूँ ..
अडिग हूँ........मैं सत्य हूँ .....

  विजय जयाड़ा . 14/05/14

बचपन में फिसलने का..



बचपन में फिसलने का कुछ अलग ही मजा था,
फिर खुद को संभाला इतना कि फिसलना ही भूल गए !!

..... विजय जयाड़ा


अनकहे शब्दों का..



अनकहे शब्दों का बोझ
हर बोझ से
भारी होता है,
सिर से उतरता है तब___
जब सुनने वाला
कोई अपना करीब होता है ..

.. विजय जयाड़ा


Saturday 14 May 2016

गिरने लगी हैं छत !







   गिरने लगी हैं छत !
         घरों में___
दौड़ती छिपकलियाँ
सुनसान झरोखे हैं
सूनी सूनी बीथियाँ ...
उदास___ इंतज़ार में
घर हो रहे खँडहर
 कहते है बंद किवाड़
     लौट आएँगी चाबियाँ ...
... विजय जयाड़ा

कभी मंद मंद



कभी मंद मंद
कभी उछल - उछल
बहता अविरल
निश्छल-निश्छल..
नहीं घाट बाट का
भेद कोई
ना ही अपना पराया
उसका कोई ..
जीवन मूल
   युग युगों से है
मृदुल जल निरंतर
    अविरल विमल ...
उतर उत्तुंग शिखर
भाव विह्वल
वसुधा अन्त:स्थल से
निकल-निकल
बहता निनाद कर
झल-मल कल-कल
बहता निनाद कर
     छल-छल कल-कल ....
.. विजय जयाड़ा


पास रहकर ही__





    पास रहकर ही__
रिश्ते नहीं संवरते !
    दूर रहकर भी __
दिलों में खिलते हैं !!
   धरती औ फलक का__
मिलन देखा किसने !
मगर रूहानी रूप में
  हमेशा साथ होते हैं !!
.. विजय जयाड़ा

उदास बांज



पिंग्ळा सोनाकि धकाधूम !
हरयाँ बंज्याण् घटणा छन्
हरयुं सोनु होयुं छ उदास
धारा पंध्यारा सुखणा छन् !!
.. विजय जयाड़ा

भावानुवाद ...
पीले सोने की चकाचौंध में !
बाँज के जंगल सिकुड़ रहे
सोना हरा उदास बैठा है
श्रोत पानी के अब सूख रहे !!

(पीला सोना= Gold, हरा सोना= बांज, Oak का पेड़, जिसे उपयोगिता के कारण पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है)


शब्द




शब्द...मंदाग्नि ग्रसित
प्रखरता निज खो रहे !
उजास अवसान जान
क्यों शिथिल से हो रहे !
उठेगा ज्वार कल्पित
तन्द्रा हिमालय तोड़ेगा
शब्दों का भूचाल तब
जन सैलाब.....बनकर
एक...इंकलाब लाएगा

.... विजय जयाड़ा