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Wednesday 20 April 2016

सतरंगी खुशियों बरसें उपवन में




सतरंगी खुशियों बरसें उपवन में
नित मिलकर मनाएं हम दिवाली

पल्लवित-पुष्पित और गुंजित हर दिन
नन्ही मुस्कानों से खिलती रहे फुलवारी

हर्षित हो हम सब मिलजुल कर
कुत्सित भावों को अब दें तिलांजलि

समरसता के भावों सी सरिता हो
उत्साहित ,सुबह और शाम हमारी

करें तिमिरता को आलोकित
अब प्रदूषणरहित मनाएं हम दिवाली

ज्ञान के दीपक जलें संग-संग
   संग-संग हम रोज़ मनाएं दिवाली..
^^ विजय जयाडा 01.11.13


Sunday 10 April 2016

अमूर्त नहीं !



अमूर्त नहीं !
धरती पर उग आये
संवेदनारहित पौधे मूर्त हैं !
महानगरों में
चलते फिरते बुतों ने
फितरत के मुताबिक
अब__
स्टील के दरख्त उगाये हैं !!
... विजय जयाड़ा

गुज़रे हुए ज़माने के ..



मेरे कैमरे की नज़र ... आपस में बतियाते इतिहास के दो काल खंडों के मूक गवाह ... लौह स्तम्भ व क़ुतुब मीनार, महरौली, दिल्ली।

गुज़रे हुए ज़माने के
निशां बहुत हैं यहाँ,
     तारीख़ ने सदा दी__
दो गवाह अब भी खड़े हैं यहाँ ..
.. विजय जयाड़ा


 

Thursday 7 April 2016

काला कागा


 काला कागा

काला कागा डाल पर बैठा
कांव-कांव चिल्ला रहा,
गर्मी से बेहाल बेचारा
  पूरा मुंह खोले हाँफ रहा ! 

तिनके पत्ते उठा रहा है
तार टहनियाँ बटोर रहा,
दूर किसी पेड़ पर जाकर
  घोंसला अपना बना रहा .


कांव-कांव कागा की सुनकर
दोस्त भी उसके आ गए,
हरे नीम आ बैठे सारे
  कागा कागा छा गए !


कांव कांव करता कागा जब
दादी बहुत चिढ जाती है,
डाल पर बैठे काले कागा को
  लाठी दिखा के भगाती है !


कागा ! कागा ! लौट के आना
दादी को हम मनाएंगे,
लेकिन तुम चुप रहना बिलकुल
   हम रोटी रोज़ खिलाएंगे !!
 विजय जयाड़ा 05.06.16


Saturday 2 April 2016

मानवता का फिर से प्रादुर्भाव हो..



मानवता का प्रादुर्भाव हो..

नयी स्फूर्ति
नव चेतना के आलिंगन में
अभिवादन और अभिनन्दन हो
प्रस्फुटन धवल विचारों का,
सीमित जिह्वा तक न रहकर
मानव् तन में हृदयस्थ हों,
गिरते जीवन मूल्यों के कालखंड में !!
नित्य कर्मों में भी उनका अंशदान हो.......

मस्तिष्क से मन हो न पोषित
मस्तिष्क,नैसर्गिक मनोभावों से सराबोर हो
हो मानव, मानवता से अभिमंत्रित
विचलित मन हो स्थिरता
मलिन विचारों का अवसान हो....

विगत वर्ष से हुआ वर्ष कम
मनुजता में उत्कृष्टता पाने का
समय हुआ कम कार्य विकट है !!
अब नही समय गंवाने का !!
स्वर्ग, धरा पर लाना है तो
नूतन वर्ष की मधुर बेला पर
शिथिल तारों को अंतर्मन के झंकृत कर
सत्यपथ पर दृढ संकल्पी बन
आया समय उचित मार्ग अपनाने का

हो महिमा मंडन का खंडन
यथार्थ का संज्ञान हो
छोड़ संचित पूर्वाग्रहों का दामन
विचारों का सतत परिष्कार हो
छोड़ अधम की राह मखमली
सत्यपथ का अवलंबन हो....

कटुता, स्वार्थ रहित हो जनजीवन
समरसता स्वीकार हो
धर्म,जाति,क्षेत्र,भाषा भेद भुलाकर
मानवता का फिर से प्रादुर्भाव हो .......

^^ विजय जयाड़ा

संकल्प



संकल्प

अधिकारों की
अतुलित चाहत में,
      कर्तव्य पथ___
नव निर्माण न भूलें.
वत्सल मातृभूमि के
आँचल में निसदिन,
      निज गौरव,संस्कृति___
संस्कार न भूलें.
पुन जगदगुरु पद
प्रतिष्ठित हो यह भूमि
      जननी ऋषियों___
महापुरुषों की वीर प्रसूता
आओ मिल
निज स्वार्थ बलिदानों का
शुभ संकल्प
आज शुभ दिवस पर न भूलें
तन मन धन
न्योछावर किया वीरों ने
उनका शुभ संकल्प
    शुभ दिवस पर न भूलें ....
^^ विजय जयाड़ा २६.०१.१४

प्यास


प्यास

एक अतिरेक
एक उल्लास
अलसाए भावों का
उल्लसित रूप !
बिछोह से
मिलन तक की
एक डगर !!
एकाकी से
आलिंगन तक का
एक सफ़र !
भ्रमित मन का
मूल तक का
एक सफ़र !
सुप्त भावों का
झंकृत स्वरुप !
तिमिर से
प्रकाश तक का
एक सफ़र !
अमूर्त को
पाने की ललक !
अतृप्ति से
संतृप्ति तक का
एक सफ़र !!
असंतुष्टि से
संतुष्टि तक की
एक डगर !
अपूर्णता से
पूर्णता की चाह
में बढ़ते कदम !
अकिंचन मगर !
साध्य तक
पहुँच पाने की आस
या
दृढ विश्वास ! प्यास !!
^^ विजय जयाड़ा

सबका प्यारा, नीम मेरा..




सबका प्यारा, नीम मेरा..

सरसराहट के साथ !!
पीली पत्तियों का
मेरे ऊपर बरसना !!
रुकने को मजबूर करती
प्यारे नीम की ये अदा !!
लम्बे समय से
संवाद नही हुआ था नीम से मेरा !!
संकोच था बहुत !!
हिम्मत करके पूछा नीम से
“कहो नीम !! कैसे हो ??”
हठ पुरानी अब भी
बरकरार थी नीम में
बालहठ मिश्रित नाराजगी
साफ झलक दिख रही थी नीम में
समेट टहनियों को
बतलाने लगा,
मन के उद्गारों को
इस तरह सुनाने लगा !
बात करते नहीं
पास से गुज़रते हुए ?
आपने ही तो उगाया था
मुझको प्यार से.
गुजरते हो जब भी याद आता है
मुझको बचपन मेरा !!
दातुन करने को
लोगों का तब
मेरी टहनियों को ले जाना !
क्रूर हाथों की हद से
बचाने की कोशिश में
आपका टहनियों को,
सलीखे से ऊँचा बांधना !
खाल मेरी नोंच कर
निर्दयी लोगों का ले जाना !
और सुबह देखकर
गुस्से में आपका बडबडाना !!
मिटटी औ गोबर लेपकर
टाट-पट्टियों से
मुझको लपेटना !
सुनकर बातें इस तरह नीम की,
भाव विह्वल हुआ ह्रदय
यादें ताज़ा हो गईं !!
तब सकोमल नन्हा सा था, नीम मेरा !
“ नीम !! युवा हो गए हो तुम
संतोष है मुझको बहुत,फ़र्ज़ पूरा कर सका,
कर्ज धरती का,
कुछ इस तरह निपटा सका !! “
नीम से बस इतना ही कह सका !
निहारिये आप, दस सालों में
कैसे बढ़ा, जवां कितना हुआ !
सबका प्यारा, नीम मेरा !
^^ विजय जयाड़ा


बदलाव !



बदलाव !

मसीहा तलाशते हैं
बदलाव के लिए !!
मगर
खुद को महफूज रख
बदलाव हो
तो किस तरह !!
उजालों की चाह में,
अंधेरों को कोसते रहे !!
मगर
अँधेरा भगाने की कोशिशों में
दीया तक जलाया नही गया !!
आलोचना में दूसरों की,
क्यों वक़्त बर्बाद करें.
चलो, क्यों न खुद से ही
बदलाव की शुरूआत अब करें.
^^ विजय जयाड़ा


निर्झर




निर्झर

गोद में बैठा शिशु निर्झर
बालहठ माँ से कर रहा,
कूदकर गोद से बार-बार
उन्मुक्त विचरण उसे सुहा रहा.
क्रूर पाषणों से टकराने का हश्र
माँ वसुधा समझा रही,
खारे समुद्र से मिलने पर,
गुम होने का भय दिखा रही.
अंत बाल हठ के सम्मुख,
ममता समर्पण कर लेती है,
शिशु बिछोह का कष्ट भुला
माँ व्याकुल सी विदा लेती है.
कल कल निनाद करता निर्झर
अठखेलियाँ कर बढ़ जाता है,
पाषाणों से टकरा कर भी
सतरंगी उज्जवल छवि बिखराता है.
नित नए पड़ावों से गुज़र-गुज़र,
जीवों की प्यास बुझाता है.
चिंता नहीं उसको खारे समुद्र में समा,
अस्तित्व समाप्त हो जाने की.
चाह, फिर बादल बन बरस-बरस,
जीवों को नवजीवन दे जाने की ..
^^ विजय जयाड़ा 03/08/14

जीवन



जीवन

नम मंद शीतल बयार
फिर थपेड़ों भरा शुष्क मौसम
कंपकपाती शीत और
फिर मस्त बसंत का मौसम
निरंतर अंधेरों के बाद
एकाएक उजालों का आगमन
सुखद अहसास दे जाता है
ऋतु चक्र से नियंत्रित
चलायमान वृहत सृष्टि
बसंत, ग्रीष्म,वर्षा
शरद, हेमंत, शिशिर अनुकूलन में
स्वयं को सहजता से
साधता है जीव
जिजीविषा में हर परिवर्तन को
सहजता से स्वीकारता
इतिहास रच जाता है जीव
या फिर निराशा व कुंठा में
पराभव को प्राप्त हो जाता है जीव
फिर जीवन की कठिनाइयों से
क्यों टूट जाता है जीव !!
जीवन चक्र से स्वयं को अलग कर
पराभव को क्यों स्वीकारता है जीव !!

..विजय जयाड़ा 09/09/14

मातृभाषा हिंदी



......मातृभाषा हिंदी .....

माँ के आँचल छाँव तले
ममतामय संसार मिला
उम्र बढ़ी गोद छूटी
भाषाओँ के झंझावात में
मातृभाषा प्रथम संवाद बनी
सुख दुःख जीवन साथी हैं
सुख में सब आन मिले
साजों पर स्वर नाच उठे
परभाषा अपनाकर हमको
  तब खुद पर अभिमान हुआ !
दुःख में सब बिखर गए
साजों से स्वर भी रूठ गए
आस रही न तब मन में
घनघोर निराशा छाने लगी
तब उमड़े भावों के जल से
भाषा तटबन्ध टूट गए
ईश्वर आस बची मन में
आलम्ब दिया मातृभाषा ने
परभाषा तजकर तब हमने
मातृभाषा को अपनाया
भाषाओं के जाल से निकल
हिंदी को ही अपनाया
सूझी न दूजी भाषा कोई
मातृभाषा में संवाद किया
दुखड़ा सुनाया ईश्वर को
  हिंदी में ही संवाद किया !
मातृभाषा हिंदी अपनी
कहने लिखने में
हम क्यों सकुचाते हैं
      माँ के ममतामय___
आँचल छाँव से हम
  क्यों ! खुद को दूर ले जाते हैं ! 

.. विजय जयाड़ा 14/09/14 



आस




आस

एकाएक आया
वो नर्म हवा का झोका
उदास वापस जाती लहर के
ह्रदय में उठते उफान और
पीड़ा शांत करने की कोशिश में
घावों पर स्नेह लेपन करता
वो नर्म हवा का झोका
सोचने को मजबूर करता
समझौतों को विवश करता
नियति को बतलाता
लहर को तट के पास
फिर से जाने की मनुहार करता
वो नर्म हवा का झोका
आखिरकार !!
ह्रदय आवेगों को
काबू में लाने में कामयाब हुआ
लहर,तट से टकराहट से मिली
पीड़ा भूलने को मजबूर हुई
नियति को स्वीकारती
अतीत के कटु अनुभवों को भुलाती
लहर उठ चली
एक बार फिर तट की ओर
स्नेह मिलन की आस में
बदले व्यवहार की तलाश में
नर्म अहसास की आस में !!
पथरीले तट की ओर !!
.. विजय जयाड़ा 16/09/14
 
 


सोपान



                  स्वर्गीय पिता जी ने सेना और बाद में सिविल में सेवा की, धर्म, अध्यात्म, इतिहास और सम सामयिक विषयों पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी, साथ ही उस जमाने में भी पिता जी को फोटोग्राफी का बहुत शौक था। विवेकानंद जी के अध्यात्मिक दर्शन के अनन्य समर्थक थे.बात -बात पर विवेकानंद जी को संदर्भित किया करते थे . घर पर साधू-संतो ( ढोंगी नही) विद्वानों का आना जाना लगा रहता था, प्रसिद्ध समाजसेवी व सुधारक स्वामी मनमथन जी व पिता जी में गहरी आत्मीयता थी । कुतर्कों और तथ्यहीन तर्क पर भड़क जाते थे छुट्टी के दिन तो पूरे दिन व्यावहारिक आध्यात्मिक दर्शन पर चर्चा चलती थी. हम छोटे थे लेकिन पास बैठकर दिन भर सुनते रहते थे.घर पर कठोर अनुशासन हुआ करता था.        
             विद्वत सत्संग से सुनी चर्चा आज मेरे लिए ज्ञान के पुस्तकालय का काम करता है। पिता जी के बौधिक स्तर तक पहुँच पाना तो मेरे बस की बात नहीं लेकिन प्रयास अवश्य करता हूँ . अगर मन कि बात कहूँ तो उनके जाने के बाद आज घर में बौधिक रिक्तता महसूस होती है ।सादर नमन के साथ सामजिक सौहार्द पर पिता जी की भावनाओं को शब्द रूप देने का प्रयास .



सोपान
निज थाती की रक्षा खातिर
जाग रहा वो सदियों से है
अजेय हिमालय सो रहा है
उसको विश्राम कर लेने दो
पोषा गंगा-जमुना ने जिन शूरवीरों को
मातृभूमि पर तिरोहित वे हो गए
फिर से उपवन सींच रहीं वो
सतरंगी पुष्पों को खिल जाने दो
आदमियत से जुदा नहीं है मजहब
क्यों लोगों को भड़काते हो
गंगा-जमुनी तहजीबी वतन में
नफरत की चादर को
अब गंगा जल में धुल जाने दो
पहरेदार हिमालय जागा तो
भृकुटी प्रबल तन जायेगी...
गंगा- जमुनी जल की लहरें
तब तट मर्यादा पार कर जायेंगी
गद्दारों समझ लो हश्र अपना तब
मजहबी फसादों को क्यों उकसाते हो
आदमियत से बड़ा नहीं है मजहब
अब आदम को मिल जाने दो
धर्म साधन,साध्य एक है सबका
फिर पथ अलग क्यों अपनाते हैं
जिस पथ चलें सब मिलजुल कर
निर्माण उस पथ का हो जाने दो
आओ दिल से गले मिलें हम
मजहबी दीवारों को ढह जाने दो
आओ मिलकर कदम बढायें
तरक्की के सोपानों को लिख जाने दो.
.. विजय जयाड़ा 17/09/14

अंश



अंश

पादपों की शाखों पर
दो पात कुछ बतिया रहे
हरा पात लहराता हवा में
पीत पात कुछ गंभीर था
तेज गर्म झोंका हवा का
दोनों को दूर ले उड़ा
घबराया बहुत हरा पात
पीत संग जा गिरा
हिम्मत बंधाई पीत ने
हरा पात तब स्थिर हुआ
पोषा उसे पीत ने
खुद को गला मिटाकर
हरे पात से कई पादप उगे
एक से ही अनेक बन गए
मगर मूल सबका एक था
पीत ने मिटाया था खुद को
उसका भी उनमें अंश था. 

.. विजय जयाड़ा 19/09/14

संस्कृति




संस्कृति

अपनी संस्कृति की तुलना
क्यों दूसरी तहजीबों से करते हैं !
क्यों दूसरी तहजीबों से
अपनी संस्कृति को उत्तम कहते हैं !
रमती रही अनंत काल से
अतुल्य सनातनी संस्कृति हमारी है
आक्रान्ताओं के जुल्मों से जूझकर
सदा अधिक निखर कर उभरी है.
संस्कृति का जयकारा लगाकर
कौन संस्कृति अनंत तक जीवित रही
यूनान मिश्र रोमा मिट गए जहाँ से
अपने आचरण का परिष्कार कर्रें.
धर्म जाति क्षेत्र भाषा सीमा तजकर
हम अब साझा व्यवहार करें ..
जगत गुरु पुन:प्रतिष्ठित हो भारत
ऐसा हम सब सद् व्यवहार करें.

..विजय जयाड़ा 21/09/14

विलग पात



विलग पात

असमय डाल से
विलग पत्ते की मानिंद
इधर-उधर भटकता
पत्थरों में लुढ़कता
सूखकर बिखरने से
बचने की कोशिश में
कुछ पाकर संतुष्ट हो
नम हो सो जाता
सुबह फिर तपिश से मुकाबला
बिखरने का भय !!
बिखरने से बचने के
जतन में कूड़े के
एक ढेर से दूसरे ढ़ेर तक
अस्तित्व बचाने की जिद में
नमीं की तलाश में ..
भीड़ से अलग
बचपन से कोसों दूर
दुनिया से बेखबर
ढ़ेर में कुछ टटोलता
वो मासूम सा बच्चा !!
डाली से असमय विलग हरा पात !!
..विजय जयाड़ा 22/09/14


मुसाफिर



 मुसाफिर

हाड माँस का ये ढांचा
खंडहर हो जाना है
चलता चल मुसाफिर
   बहुत दूर जाना है ..
धूप छाँव भी मिलेगी
बारिश भी कम नहीं
    हर राह तुझे चलना__
बस चलते ही जाना है..


हमसफर साथ है तो
सफर कट ही जाएगा
मंजिल तक है पहुंचना
   तो अकेले भी जाना है ..


चलता चल मुसाफिर
बहुत दूर जाना है
  हर राह तुझे चलना__
  बस चलते ही जाना है ...


.. विजय जयाड़ा

उचककर देखती...



उचककर देखती
नि:शब्द दीवारें यहाँ !
गहरे जल का वो पुराना
नजारा अब नहीं !
परछाई रोज निकलती हैं
दीवारों से शाम-ओ-सहर
बतियाकर दीवारों से
दीवारों में ही खो जाती हैं यहाँ
छोड़ गया ___
जीवन अधूरे में इन्हें !
मगर बादल अब भी
ठहरते हैं यहाँ
लिपट जाते हैं ___
अतीत से बतियाते हुए
बरसते हैं___
रो पड़ते हैं यहाँ !!
साथ दिया किसने
दुनिया में सदा के लिए
खुद में __
मशगूल रहते हैं सब यहाँ !
मजबूरियाँ होती हैं
कारण जुदा होने का
मगर__
जान कर भी
मुसीबत में अकेला
छोड़ देते हैं कुछ लोग यहाँ !!

.... विजय जयाड़ा
 
 

उम्र के संग चलने का..



उम्र के संग चलने का.. नतीजा कुछ यूँ हुआ !
बचपन को छोड़ा था जिधर .. खुदा भी ठहर गया !!
.. विजय जयाड़ा


उम्मीदें



बाल बीथिका ..
          कल नए शैक्षिक सत्र का प्रथम दिवस था विगत सत्र के प्रथम दिवस की भांति इस वर्ष भी बच्चों ने प्रथम दिवस पर कविता लिखने का आग्रह किया लेकिन कार्य अधिकता होने के कारण चाहते हुए भी संभव न हो सका .. लेकिन आज बच्चों ने मजबूर कर दिया ! बाल मन का आग्रह न टाल सका !!
प्रस्तुत है बाल बीथिका में विचरण करते हुए बाल मन की थाह लेने का एक प्रयास " उम्मीदें "


  उम्मीदें

बीत गया अब साल पुराना
नया साल अब आया है
नई – नई कक्षा में हम सब
     नई उम्मीदें लाया है ...
झूम रहे खुश होकर बच्चे
बातें सबकी नई – नई
कक्षा नई किताबें नई हैं
    वर्दी सबकी नई – नई ...

गुजर गया जो साल पुराना
हमको बहुत सिखा गया
नए साल में मेहनत करना
     जाते – जाते बता गया ... .

पढेंगे हम सब मन लगाकर
मिलकर हम सब खेलेंगे
इस कक्षा में मेहनत करके
    स्कूल का मान बढ़ाएंगे ... 


.. विजय जयाड़ा 02.04.16