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Friday 24 July 2015
Monday 20 July 2015
Saturday 18 July 2015
तलाश
\\ तलाश //
इंसान मंगल तल पर
जिंदगी तलाशता है !
मगर धरती के तल पर
इंसानियत खोजता हूँ__
भटकता हूँ तलाश में
हर खंडहर से पूछता हूँ
दरिया और तटों से
वो तहजीब पूछता हूँ__
बदली नहीं ये धरती
न आसमां ही बदला !
बदल गया क्यों इंसान !
वजह तलाशता हूँ__
गुजरता हूँ उधर से
जिधर से कभी चला था
गुम गया बहुत पहले
वो सामान खोजता हूँ__
तलाश न जाने कब तक
ठौर है न ठिकाना !
किनारों की तलाश में अक्सर
उतराता और डूबता हूँ____
.. विजय जयाड़ा 05.0715
सर सब्ज दयार
सर सब्ज दयार
न हिन्दू है, न मुसलमान ही कोई यहाँ
न सिख और बौद्ध बसर दीखती यहाँ,
ईसाइयों की दूर तक कोई खबर नहीं
अमन औ खुशहाली की यहाँ बसर है।
न सिख और बौद्ध बसर दीखती यहाँ,
ईसाइयों की दूर तक कोई खबर नहीं
अमन औ खुशहाली की यहाँ बसर है।
नाम अलग हैं मगर कोई शोर नहीं है
मजहबी बिसात, मोहरों का खेल नहीं है,
आपस में रहते हैं सभी मेल-जोल से
छोटे और बड़े का भी यहाँ भेद नहीं है !!
धर्म जाति पंथ का बसेरा यहाँ नहीं
फिरका पसन्दों का भी बोलबाला नहीं,
दैरोहरम भी दूर तक दिखते नहीं यहाँ
मगर,सर सब्ज दयार में__
हर कोई दुनिया की खिदमत में लगा है यहाँ !!
... विजय जयाड़ा
मजहबी बिसात, मोहरों का खेल नहीं है,
आपस में रहते हैं सभी मेल-जोल से
छोटे और बड़े का भी यहाँ भेद नहीं है !!
धर्म जाति पंथ का बसेरा यहाँ नहीं
फिरका पसन्दों का भी बोलबाला नहीं,
दैरोहरम भी दूर तक दिखते नहीं यहाँ
मगर,सर सब्ज दयार में__
हर कोई दुनिया की खिदमत में लगा है यहाँ !!
... विजय जयाड़ा
Saturday 11 July 2015
उद्गार
उद्गार
साथियों, मित्रवर, विजय जयाड़ा जी के लिए मन के कुछ उद्गार व्यक्त करना चाहता हूं,समर्पित हैं
विजय जयाड़ा धीरमति, होते नहीं अधीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधे तें पुनि आध।
विजय जयाड़ा साथ तो, होवे कौन व्याध।।
सूक्ष्म चितेरे प्रकृति के, अनुसंधानी आप।
व्यापक सोच बनाई है, नहीं बनाई ‘खाप’।।
शिक्षा के संधान में, लगे रहें दिन- रात।
कैसे नवयुग आएगा, करते रहते बात।।
भूतकाल के द्वार पर, पढ़ते हैं इतिहास।
नई सोच नई व्याख्या, रहती इनके पास।।
सौम्य सरल मितभाष हैं, मृदुल हास्य की खान।
मित्र मंडली में सदा, निरभिमान श्रीमान।।
रुचिकर तर्क प्रमाण से, लिखते हैं इतिहास।
फोटोग्राफी में कुशल, देवभूमि का वास।।
सादर..
रचना :अनुपम पाण्डेय
पाती
__\\पाती //__
दिवस गए
कई रैन गयी
मौल्यार बसंत भी
बीत गया
खिले फूल भी
विरह में मुरझा गए
तेरे लौट के
आने के वादे
नहीं पूरे हुए
तपती धूप
बाट निहारी तेरी
शीत से अब तक
तकते तकते
आँखे थकी अब मेरी
पर तू निर्मोही
आया नहीं
अब तक पलट कर
राह मेरी ..
दिवस गए
कई रैन गयी
मौल्यार बसंत भी
बीत गया
खिले फूल भी
विरह में मुरझा गए
तेरे लौट के
आने के वादे
नहीं पूरे हुए
तपती धूप
बाट निहारी तेरी
शीत से अब तक
तकते तकते
आँखे थकी अब मेरी
पर तू निर्मोही
आया नहीं
अब तक पलट कर
राह मेरी ..
उलाहनों भरी
पाती पढ़कर !
सोया जीवन
फिर मचल उठा
रोके नहीं अब
कोई मुझको..
रुकने नही देते
पग मुझको,
अब दौड़ चला
मैं निकल पड़ा
पर्वत से मिलने
दूर निकल चला..
.. विजय जयाड़ा 23.06.15
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