ad.

Saturday 18 August 2018

खंडहर !



खंडहर !

भग्नावशेष 
अनकहे ही.... 
पीड़ा बयां करते हैं
उनकी पीड़ा
तब समझ पाता हूँ
जब वर्तमान से 
उस काल खंड में 
खंडहरों संग पहुंचकर बतियाता हूँ !
जब सब वर्तमान था.. जीवंत था !
इंसान रौनक लाचारी
यहां सब बसता था...
महल चौबारे
सैनिकों के पहरे
बाजार की रौनक
घुँघरुओं की खनक
बुजुर्गों की चौपाल
इर्दगिर्द घूमते..
अबोध मासूम नौनिहाल
बावड़ियों पर 
नव विवाहितों संग
सखियों की हंसी ठिठोली
तीज त्योहार..और
नाजुक हाथों से उपजी....
रंग बिखेरती रंगोली
दरबार के फरमान
कहीं खुशियां..
कहीं.. दफन हो जाते अरमान
मायूस गरीब की पुकार
राजा से न्याय की गुहार 
हुक्मरानों की बेगारी
निरीह प्रजा की लाचारी
युद्ध की रणभेरी और
देवों का वंदन
आक्रांताओं के वीभत्स प्रहार
विधवाओं का आर्त क्रंदन
मानव चीत्कार
मानवता का मानमर्दन
मानव का मय संस्कृति पलायन
मासूमों की डबडबाती आंखे
कंपकंपाते होंठ..कुमलाती शाखें
आक्रांताओं का प्रलय नाद 
कहीं जय जयकार....
कहीं अवसाद! कहीं विषाद !
आतताइयों का उत्सव! 
लुटते उजड़ते घर और नर संहार !
उभरने लगते हैं भग्नावशेष
सिमट कर.... 
खंडहर हो जाता है सपनों का संसार
ये सब देख कर सिहर जाता हूँ 
  अतीत से वर्तमान में लौट आता हूँ...
क्या.... मूक खंडहरों की बात
हम समझ पाते हैं !

या....महज इन भग्नावशेषों को
 कैमरे में कैद कर अपने संग ले आते हैं !
...अनहद



No comments:

Post a Comment