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Monday 28 December 2015

जटा-जूट तपस्वी




... जटा-जूट तपस्वी ...

सकल वसुधा का ताज हिमालय
अडिग युगों से डटा हुआ,
युगों-युगों से तपस्या लीन जटा-जूट
  अविचलित देखो मौन खड़ा..
 
बादल विपत्ति के बहुत से आये
टकराकर यहाँ सब चूर हुए
सरहद का सदा चौकस प्रहरी
   आँधियों में भी अटल खड़ा ...

छू लो तुम आकाश को लेकिन
अपनी लघुता का ध्यान धरो
अडिग रहो विपदाओं में कहता
    तपस्वी तूफानों में भी खड़ा...

... विजय जयाड़ा / तस्वीर: पुत्री दीपिका जयाड़ा
.. गन हिल मसूरी से हिमालय का एक दृश्य

Monday 21 December 2015

तरक्की के दौर में जमाना बदल गया ..





तरक्की के दौर में जमाना बदल गया
कायनात वही है सिर्फ इंसान बदल गया !
महफूज़ रखो खुद को कि ज़माना ख़राब है
अब इंसान ही इंसानी ख़ूँ का प्यासा हो गया !!

  विजय जयाड़ा /तस्वीर : पुत्री दीपिका जयाड़ा द्वारा


Saturday 19 December 2015

मायूस कर के खुश न हो मौला ! ...






मायूस कर के खुश न हो मौला !
घने अंधेरों में ही जुग्नुओं को निकलते देखा है,
तीरगी रही न यहाँ सदा के लिए
सहर के आने पर अंधेरों को दूर जाते देखा है !!
.... विजय जयाड़ा


Friday 18 December 2015

वर्चस्व



 वर्चस्व 

 विलग अस्तित्व की चाह में
ठन जाती है शाखों में
और हठ बदल जाती है
वर्चस्व की लड़ाई में
  किंकर्तव्यविमूढ़ मूल !
शाखों के जोर से
ढुलकता जूझता
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
साम्य बनाने में
   थक कर चूर और मायूस !!
मौन ओढ़ लेता है मूल
   और एक दिन__
भरभरा कर
  धरती पर गिर जाता है !
   सब उजड़ जाता है !!
मूल से विलग हो
  कौन स्थिर रह पाया है !
   कौन सुखी रह पाया है !!
   अब शाखें हैं मगर__
छिटकी सूखती कराहती हुई
दूर तक पसरा
   निश्चिंत मूल भी नहीं !!
   पसरा है .. तो सिर्फ__
   स्याह सन्नाटा लिए पछतावा !!
  विजय जयाड़ा 18.12.15


Sunday 13 December 2015

खामोशी



खामोशी

परत दर परत
यादों को खुद में छिपाए
परतें उघडती हैं
धुंधलका छितराने लगता है
घने कुहरे को
सूरज का उजाला
निगलने लगता है
अब अतीत स्पष्ट
नज़र आने लगता है
खट्टी-मीठी यादें
जीवंत हो उठती हैं
गुदगुदाती हैं
जी भर हंसाती हैं
यादों का चलचित्र ज्यों-ज्यों
आगे बढ़ता जाता है
तेजी से कुछ
पीछे छूटता चला जाता है
परत दर परत
धुंध में फिर से
   छिपने लगता है !!
       तन्द्रा टूटती है ___
यादों के आगोश में समाते
आवरणित होते
अतीत को फिर पाने की
जीने की जिद में
मन मचलने लगता है
      लेकिन ____
   अतीत वापस नहीं आएगा !!
सोचकर !!
   मन मायूस हो खामोशी ओढ़ लेता है !!
विजय जयाड़ा 12.12.15


Wednesday 9 December 2015

रहगुज़र मुश्किल चुनी तो ...




रहगुज़र मुश्किल चुनी तो
  बैर ठोकरों से भला कैसा !
चाह
अगर फूलों की है तो
  निबाह काँटों से जरूरी है .
 विजय जयाड़ा


    

Tuesday 8 December 2015

निरंतरता



 

“ निरंतरता “

शीत का
पहरा पड़ा
उष्णता कहीं
बलखा रही,
तिमिर कहीं
घनघोर छाया
कहीं उजास
इठला रहा,
शीत से गुजरता
निरन्तर पथिक
उष्णता की चाह में
   अविराम ...
आगे बढ़ रहा,
तिमिर घनघोर
कठिन पथ से गुजर,
उष्ण उजालों को पाकर
   विजित मन...
उत्साहित बदन
   प्रफुल्लित, हरषा रहा ....

..विजय जयाड़ा 20.01.15

नमन



नमन

मधुर कर्णप्रिय
कल-कल निनाद
हरित पल्लवित विटप
शीतल मंद बयार
लता विहग खग
कलरव संग
अतुलित कर श्रृंगार
निजता का कर
तिरस्कार
खग-विहग मनुज
सबकी पालनहार
हे, ममतामयी
    अप्रतिम ..
सौम्य प्रकृति
तुझको नमन
बारम्बार.. बारम्बार

^^ विजय जयाडा ..23.09.13


हमारा हरा-भरा विद्यालय




हमारा हरा-भरा विद्यालय

नित नूतन जीवन..
स्फूर्ति तन मे पाता हूँ,
रोज प्रात मतवाले उपवन में
खुद से ही मिल पाता हूँ,
बीत गया जो बचपन मेरा
उसका दीदार कर पाता हूँ
कल्पना सागर में नित गोते
विद्या उपवन में लगाता हूँ,
मूर्त रूप पाने की चाह में
कुछ नव सृजन पुष्प उगाता हूँ.

  विजय जयाड़ा
 
 
 

घायल बीर बिराजहिं कैसे।



 पर्णरहित सेमल पर रक्तवर्ण पुष्प देखकर मानस का एक प्रसंग याद आ गया ....
  घायल बीर बिराजहिं कैसे।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परस्पर करि अति क्रोधा।।


खुशबु इनमें बेशक नहीं ! ...



 खुशबु इनमें बेशक नहीं !
  मगर कुछ तो बसा है इनमें,
महकाया नही कुदरत ने मगर
      फुर्सत से रंग तो भरे हैं इनमें .... 

.... विजय जयाड़ा

 

दिल्ली





 दिल्ली

यौवन पर चढ़ती
  उजड़ जाती दिल्ली !
सल्तनत बदलती !
     निखर जाती दिल्ली ....
गरजती कभी खामोश
रहती थी दिल्ली !
शंहशाही इशारे पर
      थिरकती थी दिल्ली ...
अब शंहशाह रहे न
सल्तनत ही बाकी !
अब दिखती यहाँ..
सिर्फ रवानी जवानी.
दिल हिन्दुस्तां का
धड़कता यहाँ है
रौनक से लवलेज़
  हर रोज़ खिलती..
कुछ खास दुनिया से
   सबसे निराली !!
सरसब्ज सतरंगी..
   हम सबकी दिल्ली ...

..विजय जयाड़ा 28/10/14
 
 

अथक पथिक




आज तस्वीर संग्रह में ये तस्वीर दिखी ! भावों को शब्द रूप में गूंथने का एक प्रयास " अथक पथिक "...

अथक पथिक

कठिन राह पर
श्रांत क्लांत चित्त 
मजबूर करता है
वहीं रुक जाने को
वहाँ से वापस
लौट जाने को !!
     मगर___
पेड़ पौधे लताएं
    झुरमुट, पंछी__
सारा हरियल वन
नजदीक चला आता है
दुलारता है,
पथ करीब आकर
मंद मंद बतियाता है
लक्ष्य साधित
पथिकों के
       किस्से सुनाता है ___
हौसला बढ़ाता है
उत्साहित हो
उमंगित पथिक
लक्ष्य की तरफ
पुनः बढ़ जाता है !
शायद पथ पर
ठहर गया पथिक
     नहीं कहाना है उसे___
पहुंच गया
जो लक्ष्य पर
    लक्ष्य साधित__
अथक पथिक
   कहलाना है उसे !!

... विजय जयाड़ा 06.12.15


Friday 4 December 2015

प्रवाह



प्रवाह 

भोला मासूम मृदुल जल
धरती के गर्भ से निकल
लम्बी यात्रा पर चल पड़ा
प्रवाहमय अविरल विकल

खार ही उसकी नियति है !
परवाह नहीं ना ही खबर
उसको तो बढ़ते जाना है
    रूककर नहीं हो जाना मलिन ...

.. विजय जयाड़ा 04/12/15


Thursday 3 December 2015

तस्वीर बनाने का मुझमें हुनर नहीं,






तस्वीर बनाने का मुझमें हुनर नहीं,
मगर तस्वीर बनाने की कोशिश करता हूँ !
अल्फ़ाज़ों का भी मुझे कोई इल्म नहीं,
फिर भी ज़ज्बातों को लफ़्जों में बयाँ करता हूँ !
मगर आपकी तरफ से ____
हौसला अफजाई में कोई कसर नहीं !!
आपका दिल से शुक्रिया और एहतराम करता हूँ ...

... विजय जयाड़ा


अंतर्मन



अनायास ही गुदगुदाते लम्हे ....

 
                     अपनी रचनाओं को प्रकाशन के उद्देश्य से समाचार पत्र या पत्रिका में नहीं भेजता। लेकिन ...
शुक्रगुजार हूँ, संपादक श्री गणेश जुयाल जी व साप्ताहिक पत्र " न्यू एनर्जी स्टेट " परिवार का, कि वो मेरी रचनाओं को फेसबुक से ही चयनित कर प्रकाशन योग्य मानकर मेरा उत्साहवर्धन करते हैं।
                   पत्र में मेरी रचना "अन्तर्मन " को स्थान देने हेतु " न्यू एनर्जी स्टेट " साप्ताहिक पत्र परिवार का हार्दिक धन्यवाद।

।।अंतर्मन ।।

गऊ सानिध्य
न मिल पाना
महानगरीय मजबूरी है
लेकिन ___
कोई ये मान न ले
गऊ से हमारी दूरी है !
धर्म ग्रन्थों ने मिलकर
गऊ का महत्व
स्वीकारा है
फिर गऊ पर क्यों !!
होता इतना हंगामा है !!

दूध पिया
जननी का हमने
ममता का माँ हम नाम धरें
दूध पिया
गौ का भी हमने
क्यों ममता से इनकार करें !!

इंसान को दूध
पिलाया गऊ ने
मजहब का नहीं भेद किया,
फिर हमने
गऊ को आपस में
मजहब में क्यों बाँट दिया !!

बहुत हुई
गौ धन पर सियासत !!
इस पर अब लगाम करें,
दूध का कर्ज
अन्तर्मन से चुकाएँ___
जीवन अपना धन्य करें...

... विजय जयाड़ा

जीवन सत्य




... जीवन सत्य ....

शून्य से आगे बढ़ा
यौवन फिर वरण किया !
शून्य से तब हो विलग
उनमत्त हो विचरण किया !

जीर्ण फिर काया हुई
काल वो अंतिम पहर सा !
बिसरा दिया था तब जिसे
शून्य को .... स्वीकार किया !

.. विजय जयाड़ा 20.11.15
 
 

सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस में




सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस में
भरे पेट लोगों को फिर जुगाली का बहाना मिल गया,
मगर ____
खाली हंडिया चूल्हे पर रख माँ बहलाती रही और
भूख से बिलखता मासूम भूखे पेट आज फिर सो गया !!

..... विजय जयाड़ा 25.11.15

अब जमाने में मिजाज हुआ खुदगर्ज है...




अब जमाने में मिजाज हुआ खुदगर्ज है,
माकूल हो खुद के, वो बन जाता रिवाज है ! 

सदियों की रवायतें लगा देते हैं दाँव पर !
बाजी उलट गई तो दोष मढ़ते हैं दौर पर !!

.... विजय जयाड़ा