जर्जर
काया
आज
फिर कुछ बादल
जर्जर हो चुके
खंडहर के ऊपर आ थमे
हर सावन की तरह
खामोश है अब खंडहर !
आज भी !
समाधिस्थ है !
आज भी
समय की रुक्षता से ..
संवेदनाएं भी
पत्थर सी हो गयी
उसे आज भी इंतज़ार है
सावन के उन
स्नेहिल फाहों का
जो आसमान से उसे देख
ठहर जाते थे
बरसने के लिए...
नर्म स्पर्श देकर
गुदगुदाते थे
उम्र के हर सावन में
निखारने को
संवारने को
फिर से लौट आते थे ...
नम कर जाते थे
अगला सावन
बरसने तक के लिए ..
अब वो बादल नही आते
बादल आते हैं
उम्रदराज़...
जर्जर काया देख कर
आगे बढ़ जाते हैं ..
कहीं और बरसने के लिए...
.... अनहद
जर्जर हो चुके
खंडहर के ऊपर आ थमे
हर सावन की तरह
खामोश है अब खंडहर !
आज भी !
समाधिस्थ है !
आज भी
समय की रुक्षता से ..
संवेदनाएं भी
पत्थर सी हो गयी
उसे आज भी इंतज़ार है
सावन के उन
स्नेहिल फाहों का
जो आसमान से उसे देख
ठहर जाते थे
बरसने के लिए...
नर्म स्पर्श देकर
गुदगुदाते थे
उम्र के हर सावन में
निखारने को
संवारने को
फिर से लौट आते थे ...
नम कर जाते थे
अगला सावन
बरसने तक के लिए ..
अब वो बादल नही आते
बादल आते हैं
उम्रदराज़...
जर्जर काया देख कर
आगे बढ़ जाते हैं ..
कहीं और बरसने के लिए...
.... अनहद
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