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Saturday 18 August 2018

शब्दों का कूच



शब्दों का कूच

शब्द कूच कर गए
बिन बताए !
अचानक ! न जाने
किधर चले गए
न आहट !
न सरसराहट !
न सुगबुगाहट !
न कोई गूँज
न ही अनुगूँज
जाने कहां चले गए
रोकता मिन्नतें करता
अगर पता चल गया होता
प्यार से संजोया
सहेजा था उन्हें
यूं ही नहीं....
चले जाने देता उन्हें !
चोली दामन का साथ था
हर पल उनसे बतियाकर
खुश होता था
वो भी तो
मुझे घेरे रहते थे
मेरी गोद में बैठे रहने की
जिद भी तो किया करते थे
जब भी सामने आते थे
नया रूप
नई रंगत बिखेरते थे
न जाने कहां गए !
किसके साथ और क्यों गए ?
हतप्रभ हूं ! हैरान हूं !
क्लांत मन मौन हूं
अपराध बोध है
शब्द रहित गतिरोध है
उन शब्दों की
फिर से तलाश है
लौट आने की आस है
लेखनी अभी थमी नहीं
स्याही भी..
अभी सूखी नहीं
शब्द कूच कर गए बेशक !
अमूर्त को उकेरने की प्यास है
कूच कर गए शब्दों के
जल्द लौट आने की आस है ...
..... अनहद


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