ad.

Saturday 5 November 2016

दरकता पहाड़ !


दरकता पहाड़ !

पहाड़ के सीने पर
चलते फौलादी औजार
निरंतर प्रहार !
झेलता बेबस पहाड़
क्रोधित शिव तांडव
विपदा बार-बार
निरीह बनते
  प्रकोप के शिकार
फटते बादल
उफनती नदियां
गाड गधेरों में सैलाब
  दरक रहा है पहाड़ !
हर तरफ चीख पुकार
भविष्य अंधकार
चहुँदिश हाहाकार
वातानुकूलित कक्षों में गोष्ठियां
सरकारी इमदाद बार बार
पीड़ित बेघर बेज़ार !
" कारिंदों " की चांदी हर बार
चर्चा वही बारम्बार
  क्यों रीते घर !
  ताले गुलजार !!
  खिसक रहा है पहाड़ !
   क्यों दरक रहा है पहाड़ !!

.... विजय जयाड़ा


मूढ़-मन


-- मूढ़-मन -- 


वो पास हों तो
बेचैन सा मन
कुछ कहने को
मचलता है
अंतस में उठती
भाव लहरों संग
शब्द कोष
बह जाता है
अन्तर्मन की
ऊहापोह में
कुछ कहने से
सकुचाता है
किंकर्तव्यविमूढ़
मूढ़ मन
पास होकर भी
दूर रह जाता है

.. विजय जयाड़ा


सर सब्ज़ गुलिस्तां की तरफ


अरावली पर सूखते दरख़्त की स्थिति देख उपजे भाव ...
सर सब्ज़ गुलिस्तां की तरफ
सब रुख करते हैं,
  सूखने लगता है जब दरख़्त !
      इंसान तो क्या ___
   परिंदे भी अकेला छोड़ उड़ जाते हैं !!

... विजय जयाड़ा


Monday 17 October 2016

अमर बेल


अमर बेल

अनंत विस्तार ले चुकी
धीरे-धीरे समाज को
खुद में समा चुकी

अमर बेल के करीब से
        आज फिर____
गुजरना हुआ
उन्मादित है ! आह्लादित है !
प्रमादित है, अमर बेल !
हरियल पेड़ की
दरकार भी नहीं अब उसे !
जाति धर्म भाषा की
     जहरीली लताएँ___
पोषित कर रही हैं अब उसे !
अदृश्य है अमूर्त है
  अशांति आर्तनाद !
मासूमों की सिसकियाँ
   अबलाओं का रुदन !!
उसका मूर्त रूप है
समाज के ऊपर
विस्तार ले रही है अमर बेल
         उन्मादित है !____
आह्लादित है अमर बेल
समाज को जकड़ती
फिरकों में बांटतीं
      विस्तार ले रही हैं___
अनेकों अमर बेल !
 
..... विजय जयाड़ा

Saturday 1 October 2016

तन्हा दिल किससे कहे !



तन्हा दिल किससे कहे !
हर तरफ तन्हाइयों के मेले हैं
भीड़ बेशक साथ है मेरे
  मगर हम फिर भी अकेले हैं !!

हवाओं उन तलक मेरा
पैगाम पहुंचाना तुम जरूर
खुश हैं वो बेशक उधर बहुत
  हम महफ़िल में भी अकेले हैं !


शमा बुझ जाएगी जाने कब
रात फिर से ढ़लने को है
सुबह से पहले चले आओ तुम
  तब तक हम अकेले है !


अकेले न वापस आ जाना !
उनको साथ में लाना तुम
इंतज़ार में खड़े हैं हम
     इधर हम बिलकुल अकेले हैं !!
... विजय जयाड़ा

Thursday 15 September 2016

डैनों पर विश्वास है जिन्हें


डैनों पर विश्वास है जिन्हें
  ऊँचाइयों से वे घबराते नहीं !
अनंत व्योम बेशक सही
   परिंदे परवाज़ से बाज़ आते नहीं !! 

.... विजय जयाड़ा


Friday 9 September 2016

झरना


  झरना  

चलना नित
आगे बढ़ना
झर-झर
झरना कहता है
चलते जाना
जीवन है
रुक जाना
मौत समान है.

गति ही
चिर यौवन उसका
यौवन कब __
पीछे देखता है !!
गिरी शिखरों की
गोद से निकल
अब__
पत्थरों से भी टकराना है.
... विजय जयाड़ा

Monday 29 August 2016

फेरी वाला



इण्डिया गेट पर एक स्वाभिमानी के उद्गार ___

--फेरी वाला--

लाचार नहीं !
स्वाभिमानी हूँ
मौसम से बेपरवाह
चिलचिलाती धूप में
अपनी गृहस्थी का बोझ
अपने कन्धों पर उठाता हूँ 
मुझे देखकर
हमदर्दी न जताना 
  मेरे दोनों हाथ__
बेशक नहीं !
दूसरों की तरह
मैं भी फेरी लगाता हूँ
स्वाभिमान से जीता हूँ
अपनी गृहस्थी का बोझ
खुद उठाता हूँ
 मनचाहा दिखे !
मेरे थैले से निकाल लेना
यकीन करना !
निराश नहीं करूँगा
वाजिब दाम लगाऊँगा
उचित लगे ! खरीद लेना
थैले में पैसे डाल देना
   मगर___
बेबस न समझना
मुझे देखकर
   हमदर्दी न जताना !!
स्वाभिमानी हूँ
अपनी गृहस्थी का बोझ
अपने कन्धों पर उठाता हूँ
मुझे किसी से शिकायत नहीं
फेरी लगाना
मेरी मजबूरी भी नहीं !
 पेशा है मेरा !
इंडिया गेट पर फेरी लगाता हूँ
       फेरीवाला कहलाता हूँ  ....
... विजय जयाड़ा

बादलों का समन्दर




~बादलों का समन्दर~

रूई सी नर्म
फाहों को उठकर
बादल बनते मैंने देखा
अनेक से एक___
हुए जब बादल
लहराता समन्दर देखा !
दूर दूर से बादल आते
झूमते हाथी जैसे दिखते
बादलों से
ऊपर जाकर तब
बादलों का समन्दर देखा !
उठती जल वाष्प
धरती से ऊपर
व्यष्टि को समष्टि होते देखा
उड़ते बादल
जब जब मिलते
बिछड़ों का आलिंगन देखा
उमड़ घुमड़
मस्ती में लहराता
अजब एक समन्दर देखा !
मणिकूट
पर्वत पर बैठा
उजला घना समन्दर देखा !
धरती से ऊपर__
नील गगन के नीचे
उड़ता नर्म बिछौना देखा
नर्म बिछौने
में जा बैठूँ
सपना एक सलौना देखा !
बादल बरसे
तन्द्रा टूटी
विहित में निहित समाहित देखा
प्यास बुझाने
आया सबकी
बादलों का समन्दर देखा !!

... विजय जयाड़ा 


     मेरे छुटकु कैमरे से बादलों के लहराते-बलखाते दूर तक फैले बादलों के समंदर की रोमांचक तस्वीर मणिकूट पर्वत, कोठार गाँव, ऋषिकेश, से ली गयी है

खँडहर बयाँ करते हैं ....



खँडहर बयाँ करते हैं
बीते जमाने की कहानी
बादशाह रहा न रियाया
  हुई ख़त्म कहानी !
चार दिन का मेला है
दुनिया ये जिंदगानी
   क्यों करते हैं नफरत....
   क्यों करते बेईमानी !!

..... विजय जयाड़ा


सूर्योदय !!




 सूर्योदय !!

आज भी सूरज
पूरब से ही उदय हुआ
मगर सूर्योदय पर
दो वाक् वीरों में
जमकर द्वंद्व हुआ !
पहला अड़ा___
सूरज दक्षिण से उदय हुआ
दूसरे ने कहा___
उत्तर में सूर्योदय हुआ !
उसी गाँव के ग्रामीण का
तभी उधर से गुजरना हुआ
दोनों वाक् वीरों के
प्रश्न का रुख
अब उसकी तरफ हुआ
वाक् वीरों के तेवर देख
सच जानते हुए भी
ग्रामीण भ्रमित हुआ !!
उसने अनभिज्ञता
कुछ यूँ जताई
इस गाँव में नया हूँ
यहाँ की सूर्योदय दिशा का
मुझे ज्ञान नहीं है भाई !
अब गुजारिश आपसे है__
ऐसे वाक् वीर कौन हैं
जो भ्रमित करते हैं समाज को
ये भी बतलाइए !!
छद्म अज्ञानी ग्रामीण कौन हैं
सत्य क्यों मौन हैं !!

Saturday 20 August 2016

सूर्यास्त




सूर्यास्त

क्षितिज का
आँचल पकड़ने
अब चला वो
दिवस प्रहरी
स्वर्ण घट
ज्यों ज्यों उतरता
विहग नीड़
अपने पहुँचता,
बाहें लहराता
खड़ा था अब तक
अडिग शिखर
सेनापति देवदारु,
सघन हरीतिमा
उल्लासमय था
    शांत-श्याम__
   क्यों हुआ देवदारु !!


.... विजय जयाड़ा
कोटी-कनासर, जौनसार बावर, देहरादून में सघन देवदार वृक्ष वन की ओट से सूर्यास्त का नजारा ...


Friday 19 August 2016

विस्तृत धरा ..



विस्तृत धरा
अनंत गगन
  ठहर रे मन !
 बुझ पाएगी यही
  अंतस की अगन ..

... विजय जयाड़ा


सड़क




सड़क

ऊंची नीची कच्ची पक्की
ऊबड़ - खाबड़
कहीं संकरी__
कहीं चौड़ी सड़क पर
कभी संभलकर
कभी सरपट दौड़ते हैं
दो राहे तिराहे चौराहे
संशय में डालते हैं
पूछते पुछाते
सावधानी बरतते
हम आगे बढ़ जाते हैं
किसी सड़क से
क्यों परहेज !
आज नहीं तो कल
जानी अनजानी सड़क को
मंजिल तक का
हमसफ़र बनना है
मंजिल तक पहुंचाना है
इसलिए मुझे
ऊंची नीची, कच्ची पक्की
संकरी चौड़ी, उबड़ खाबड़
हर सड़क से मुहब्बत है
मगर___
घर तक पहुंचाती है
जो सड़क !
उससे मुझे बेपनाह मुहब्बत है..

..... विजय जयाड़ा


Thursday 4 August 2016

हरी - भरी....वसुंधरा !



 हरी - भरी....वसुंधरा !
   चमन खिला - खिला !!
महकती फिजाओं से
     मन आकर यहाँ मिला .....


प्रवाह



> प्रवाह <

धरती हो जाए
   मरुभूमि !!
कैक्टस उग आयेंगे
   कांटें__
  उनसे जुदा नहीं !
   सबको सतायेंगे !!
चाहत हो गुलाब की
धरती को
खाद पानी चाहिए
    मस्तिष्क__
  बनने न पाए मरुभूमि !
   निरंतर ___
     विचार प्रवाह चाहिए ...


.. विजय जयाड़ा


उनके मुरझाये लब



उनके मुरझाये लब लाचारी बयाँ करते हैं,
होंठ सुर्ख होंते हैं तो मिजाज बदल जाते हैं !
.... विजय जयाड़ा

पत्थरों के भी अपने मजहब होते,




राह चलते, खेत में धान रोपाई के बाद दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में पत्थर की आड़ लेकर भोजन करते परिवार को देखकर सोचता हूँ...
काश ! पत्थरों के भी अपने मजहब होते,
तो दैर-ओ-हरम की दीवारों के नज़ारे कुछ अलग होते !!
... विजय जयाड़ा
(दैर-ओ-हरम= मंदिर-मस्जिद आदि इबादत खाने)

भावातिरेक में अंतर्मन



भावातिरेक में अंतर्मन
शब्दों को टटोलता है,
शब्दों का कुनबा तब
अंतस में गुम जाता है !
... विजय जयाड़ा


Saturday 16 July 2016

पावस

 

पावस

घुमड़ - घुमड़ घन नभ में छाए
कड़-कड़-कड़ बिजली संग लाए
  दिन में हो गया घुप्प अँधेरा !
देख - देख जी सबका घबराए.

अब बरसे तब बरसे बादल
लहर-लहर नभ हिचकोले खाए
देखो उधर से आई बारिश
दौड़-दौड़ सब छत नीचे आए.

झम-झम झम बारिश आई
फुदक - फुदक दादुर टर्राएं
   पावस आयो ! पावस आयो !!
झूम-झूम सब मिलकर गाएं.

इंद्र धनुष की छटा निराली
वन मयूर नाचे इतराएं
बरसे मेघा सावन आया
  बच्चे कागज नाव चलाएं..

विजय जयाड़ा 16.07.16

           आज सुबह घने बादलों के कारण अँधेरे और बारिश का दौर चल रहा था. कक्षा में बच्चे बहुत कम आये. सामान्य पठन-पाठन के बाद सोचा ! क्यों न बच्चों के साथ खेल-खेल में मौसम के अनुकूल कुछ सृजन किया जाय.. अध्यापक की चित्त संतुष्टि व प्रसन्नता शिक्षार्थियों में निहित प्रतिभा विकास में ही होती है.
           भाषा विकास के क्रम में बच्चों के शब्द कोष मे चंद नए शब्दो, पावस, जी, घन, मेघ, हिचकोले, नभ, दादुर, मयूर, छटा का इजाफा करने की चाहत में एक प्रयास .. " पावस "
 

हो उजास जीवन निरंतर




हो उजास जीवन निरंतर
तन भी व्याधि मुक्त हो
मरु अगर हो जाए धरा तो
        आप उपवन मध्य हो ... 2
खार मुक्त हो पथ स्वयं
ठोकर न लगने पाए कहीं
शतायु हो जीवन सफल
       कामना मेरे मन की यही ... 2

 दिवस उत्सव पूर्ण हो नित
सकल मनोरथ सिद्ध हो
अंगना बरसे खुशियाँ निस दिन
     घर धन – धान्य पूर्ण हो .... 2


.. विजय जयाड़ा 15.07.2016

आज, बीज को वट वृक्ष का रूप दे सकने का हुनर रखने वाली, कुशल मार्गदर्शी व प्रेरक व्यक्तित्व, हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्या, श्रीमती कमलेश कुमारी जी का सेवाकाल के अंतर्गत विद्यालय परिवार के मध्य मनाया जाना वाला अंतिम जन्म दिवस था.
आदरणीया श्रीमती कमलेश जी के बारे में संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि मेरे व्यक्तिव में बहुत कमियाँ है लेकिन अगर आपको कुछ अच्छा जान पड़ता है तो उसका काफी कुछ श्रेय मैं नि:संकोच आदरणीया श्रीमती कमलेश जी को देना चाहूँगा.
ऐसे प्रेरक व विद्वान् व्यक्तित्व को भला व्यक्तिगत रूप से मैं उपहार में क्या दे सकता था.! मैनें मनोद्गारों को त्वरित चंद पंक्तियों में पिरोकर भेंट करना ही उचित समझा ..


नारी



कभी पहाड़
कभी !
मोम हो जाती है
दुहती है पहाड़
उनको
संवारती भी है
जूझती है स्वयं से
जिंदगी भर !
मगर हर पल
वात्सल्य बरसाती है
डरते हैं
कुछ लोग
पहाड़ों को देखकर
उसको परवाह नहीं !
मगर___
झुक जाते हैं
पहाड़ भी !
नारी के
ममतामयी दृढ़
स्वरूप को देखकर !! 

..विजय जयाड़ा

Wednesday 13 July 2016

बिखर जाते हैं हम




बिखर जाते हैं हम
आगे बढने की चाह में !
मगर जन्नत वहीँ हैं
  जहाँ रहते हैं एक ही छाँव में ..
.. विजय जयाड़ा

           गावों में भी प्राय: पाता हूँ कि जिन लोगों के घरों में सम्पन्नता दस्तक दे देती है वे लोग गाँव की ही परिधि में लेकिन मूल घरों से दूर, यहाँ तक कि निर्जन और सुनसान में अपना आशियाना बना लेते हैं !!
कारण कुछ भी हो सकते हैं !!
         महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड में अभी भी लोग एक दूसरे के बहुत करीब बसे हुए हैं.. महर गाँव से उठने वाली एकता की सोंधी महक बहुत दूर से ही महसूस की जा सकती है। यह महक राह चलते जब मैंने भी महसूस की तो बाइक रोक कर इस गाँव की तस्वीर क्लिक करने का लोभ संवरण न कर सका .


ठहर जाते हैं अल्फ़ाज़ !




ठहर जाते हैं अल्फ़ाज़ !
दिलकश नजारों को देख कर
मेरा सलाम ! कुदरत तुझे !!
तेरी अजब चित्रकारी को देख कर !!
... विजय जयाड़ा

Wednesday 6 July 2016

चिराग लगाए या दिया



चिराग लगाए या दिया
आग बुझानी चाहिए,
मज़हब कुछ भी हो
        मगर _____
    इंसानियत निभानी चाहिए ....
... विजय जयाड़ा

कुछ हो जाते हैं नम




कुछ हो जाते हैं नम
कुछ उड़ जाते हैं न जाने कहाँ !
   अरमानों का भरोसा कुछ नहीं !!
कुछ उतरते हैं जमीं पर मगर__
   बेशुमार गुम हो जाते हैं न जाने कहाँ !! 

.. विजय जयाड़ा

तेरे शहर से आती हवाएं



तेरे शहर से आती हवाएं
गुजरती हैं करीब से
मन मचल जाता है
     आती हुई तेरी महक से ....
उड़ जाती है चादर
अरमानों को ढ़के हुए
लौट आती है बहारें
    यादों के झरोखों से ...

... विजय जयाड़ा

भीड़ बहुत है शहर में मगर


भीड़ बहुत है शहर में मगर
हर शख्स सा अकेला क्यों है !
मुखातिब है यहाँ हर कोई
अब किसकी तलाश है !
... विजय जयाड़ा

जीवन सफर !



 जीवन सफर !

हर मौसम का सफर !
चलना है
सुबह शाम
दिन और रात
कभी थूप कभी छाँव
गर्मी सर्दी और बरसात,
कभी अजनबी
हमसफ़र बन जाते हैं
कभी करीबी
  अकेला छोड़ जाते हैं !
    मगर___
कुछ लोग
करीब रह कर
झूठे अहसासों के
ताने बाने से
बुनते हैं
सब्ज बागों के तिलिस्म !
      टूटते हैं___
  जब ये तिलिस्म !
उम्मीदों के पहाड़
भरभरा कर
गिर जाते हैं !
   जमींदोज हो जाते हैं !!

.. विजय जयाड़ा

रुकता नही मगर__



रुकता नही
   मगर__
यादों के निशां
छोड़ जाता है पथिक
वो गुजरेगा कल
फिर इधर से जरूर
अस्तांचल को जाता
    वो अथक पथिक ...

.. विजय जयाड़ा

स्वर्गाश्रम, परमार्थ निकेतन, ॠषिकेश से सूर्यास्त का दृश्य.

Friday 10 June 2016

बदलते रिश्ते



|| बदलते रिश्ते ||

महानगरों में
शर्मसार करती
एक कवायद पर
आँखें पथरायी !!
मौसम से बेपरवाह
अपनी जवानी
जिसके लिए,
दुश्वार राहों पर गंवाई.
भविष्य की चिंता में , 
स्कूलों के दरवाज़ों पर
नौबत बजायी !!
वही बेटा ज़वानी के जोश में,
कुछ लोगों के बहकावे में.
रिश्तों की अर्थी निकालता,  
वृद्धाश्रम में बूढ़े
बापू का दाखिला करवाने.
खून के रिश्तों को
अनजानों को सौंपने , 
लक-धक् गाड़ी से उतरकर,
जुल्फों को संवारता,
बूढ़े बाप का हाथ पकड़कर  
बाप की पुरानी संदूकची को संभालता.
वृद्धाश्रम के ब
दरवाजे को खुलवाकर.
ढुलकते आंसुओं से बेपरवाह
न आह की उसे परवाह
जवानी के मद में चूर,
मगर  नहीं है मजबूर !!
बढ़ता ही गया !! बढ़ता ही गया !!!
लेकिन !!!
भविष्य दिख रहा है,
इतिहास दोहराता है खुद को !!
उसका बेटा भी ...
बेसब्र है दोहराने को !!
बूढ़े बाप के गिरते आंसुओं से बेपरवाह,
जवानी के मद में चूर,
मजबूत क़दमों से,
वो भी बढ़ता ही जायेगा  !! बढ़ता ही जाएगा !!!
ऐ दोस्त !! लौट आ  !!
बूढ़े दरख़्त के संग.
छाँव घनी न सही
पक्षियों का सहारा होगा
आँगन वीराना न होगा ..
^^ विजय  10.06.13

 

Thursday 9 June 2016

रास्ते गुम नहीं होते


रास्ते गुम नहीं होते
ठहर जाते नहीं थक कर,
काफिले मिलते हैं उनको
   मगर__
सफ़र करते हैं अकेले ही चल कर .

... विजय जयाड़ा


रुकना मंजिल नहीं उसकी



रुकना मंजिल नहीं उसकी
उसको तो चलते जाना है
बाधाएं बेशक हैं सफ़र में
मगर__
   मंजिल तक बढ़ते जाना है ..
... विजय जयाड़ा


Wednesday 1 June 2016

रुक जा __ कुछ देर और अभी..



   रुक जा__
कुछ पल और अभी
कि दिल भरा नहीं,
यकीं है कि
लौटेगा फिर जरूर
मगर___
  सब्र मुझमें उतना नहीं ..

.. विजय जयाड़ा 

        . बादलों के बीच लुका-छिपी से मनोहारी दृश्य उत्पन्न करता चाँद, अपनी रात्रि कालीन यात्रा पूरी कर लौटने को था. मैं नजरें गड़ाए चाँद के स्पष्ट दिख जाने की चाह में काफी देर इन्तजार करता रहा लेकिन ज्यों ही चाँद स्पष्ट दिखा ! ऑटो भी चल दिया !!
       लेकिन मैंने रिस्पना पुल, देहरादून पर चलते ऑटो से भोर के चार बजे ये तस्वीर क्लिक कर ही ली ..


Sunday 29 May 2016

बदले हुए ज़माने में ..





बदले हुए ज़माने में,तरक्की क्या खूब हुई है !
मज़हब कई थे मगर, अब सिर्फ दो ही वो है !
इक तरफ पसरी है मज़ल्लत भरी मुफलिसी ,
शानो शौकत से लवरेज, सरमायेदारी कहीं है !
रोटी कहीं पूजा , तो कहीं इबादत यही है,
जुल्मों से अब होते ..... रोज़ सज़दे कहीं हैं !

^^ विजय जयाड़ा 30-05-14

मन की अभिलाषा



मन की अभिलाषा

महलों की किलकारी न सही , 
भूखे शिशु का रूदन स्वर बन
परहेज़ तुझे हो घुँघरू से तो 
अबलाओं का स्वर तू बन
न भाग्य भरोसे बैठ कभी ,
कृषकों का मधुर गीत तू बन
आँगन में खिलता पुष्प नहीं ,
घने वृक्ष का स्वर तू बन
कायर के शब्द का मोल कोई ? 
रणवीरों की हुंकार तू बन
विश्वास यदि श्रम पर तुझको , 
तो मजदूरों का स्वर तू बन
हो सरल झूठ का मार्ग मगर
 तू सदा सत्य की वाणी बन
गर माँ का स्वर बनना चाहे , 
भारत माता का स्वर तू बन
पिंजरे में पंछी क्या गाये , 
उन्मुक्त विहग का गीत तू बन
सूखी धरती जब प्यासी हो , 
शीतल वर्षा का स्वर तू बन
हो कोई दुखी संतप्त यदि , 
तो अपनेपन का स्वर तू बन
अपनी वाणी को शब्द तो दे , 
अब तोड़ मौन का ये बंधन
धीरज, आशा और नव उमंग का 
गौरवशाली स्वर तू बन

^^^ विजय जयाड़ा 24.05.13


Friday 20 May 2016

सुन कसीदे मयखाने के तेरे ,



सुन कसीदे मयखाने के तेरे ,
दौड़े चले आये हम
अब तेरी रज़ा है साक़ी,
मदहोश कर या चले जाएँ हम ...

... विजय जयाड़ा

मजदूर ..



मजदूर ..

काम की तलाश में
मुंह अँधेरे
भोला निकल पड़ा,
चौक पर आते थे
      तलाश में मजदूरों की .....
गाड़ियों से उतरते थे
लकधक् लिबास में,
वो देखता हर एक को
हसरत भरी निगाह से,
तलाश मजदूर की थी मगर
दिल के सभी तंग थे !
आँखों में शाम को
इंतज़ार में खड़े
बच्चों की तस्वीर थी !
दिन चढ़ रहा था
काम न मिल पाने की
बैचेनी का ज्वार था ,
आखिर में उदास भोला को
काम मिल ही गया !
बुझती आँखों में जैसे
सुन्दर सपना संवर गया.
शाम को दुकान पर
सीधे पहुँच गया,
चूल्हा जलाने की जुगत में
कुछ लिया, कुछ न ले सका.
बच्चों को खिला
अधपेट खा के पानी पी लिया.
भरपेट खा के, दुनिया बचाती है
गाडी, मकान के लिए !!
अनिश्चितता में कल की,
थाली की ही दो रोटियां बचा के
भोला, निश्चिन्त सो गया ! निश्चिंत सो गया !!

^^ विजय जयाड़ा.. 21.05.14


मंहगाई का जिन्न...



मंहगाई का जिन्न...
अब, पूरा आजाद है !
बोतल बंद होने का..
खौफ सताता नहीं उसे !!
'राष्ट्रवाद'.... 'धर्म'...
अब हुए उसके संग हैं !!

.... विजय जयाड़ा


बुरांश



बुरांश

रौद्र रूप में आज योद्धा
दुर्गम ऊँचाई पर आ डटा
सुगंध छल ले गयी हवाएं
लौट अब तक आई नहीं..
रक्तवर्ण हो रहा क्रोध में
उन हवाओं के इंतज़ार में..
घंटियाँ भी सुनसान सी हैं
सुर बहका ले गया कोई..
सूनी सी अब घंटियाँ हैं !
सुर लौट आने के इंतज़ार में ..
लौटा दो छलिया हवाओं
खुशबु तुम वीर बुरांश की
सुर बहका ले जाने वाले
घंटिया बजने दो बुरांश की ...
बुरांश के रक्तिम क्रोध से
सघन वन पूरा सहमा हुआ !!
धीरे – धीरे पूरा सघन वन
वीर बुरांश के क्रोध से मानो...
आज फिर दावानल हुआ !! 

.... विजय जयाड़ा 03.04.15

Thursday 19 May 2016

गुजर जाते हैं जो लम्हे ..



गुजर जाते हैं जो लम्हे
  लौट कर फिर नहीं आते !
यहीं थम कर बतिया लें
   ये मौसम फिर नहीं आते !!

.. विजय जयाड़ा


Tuesday 17 May 2016

हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !



  हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !

पुष्प आच्छादित रमणीक मनोरम
अल्हड़ हरीतिमा चहुँ ओर
प्रसन्न मन बलखाती पर्वत श्रृंखलाएं.
वृक्षों पर खग नीड़
कल-कल बहते जल प्रपात
जीवन प्रदायक और संरक्षक
पर्वत श्रृंखलाएं अनुपम नयनाभिराम !!
सहस्तित्व का देती सन्देश,
जहाँ जल, जल ही रहकर
बुझाता है प्राणियों की तृष्णा,
वृक्ष पंछियों आसरा
मिलजुल कर करते हैं
तूफानों का सामना !!
सुनसान हिमाच्छादित
संवेदना रहित
वह जड़ "उच्च शिखर",
जहाँ जल,बन "कठोर हिमखंड",
तृष्णा शांत करने में है असमर्थ !!
मिलता नहीं जीवों को आसरा.
वृक्षों और पक्षियों के कलरव का अभाव !!
मिलती है सदा संवेदना रहित
भयावह नीरवता और जड़ता
विवश है वह जड़ " उच्च शिखर " !!
तूफानों से जूझने को अकेला,
हासिल नही करनी ऐसी "श्रेष्ठता" !!!
जहाँ रहना और जूझना पड़े अकेला...
बन न सकूँ किसी का सहारा !!!!
मुझे तो बनाना है
रमणीक मनोरम पर्वत श्रंखला !! 

^^ विजय जयाड़ा 18.05.14

जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!



व्हाट्स एप्प पर हास्य पुट लिए वार्तालाप का आप भी काव्य रूप में आनंद लीजिए

एक मोहतरमा ने घुमक्कड़ी पर मुझसे संजीदगी से पूछा ..

आग बरस रही सूरज से
कैसे गर्मी को झेल पाते हो !
गर्मी में भी भ्रमण पर रहते
बरदाश्त कैसे कर पाते हो !!

मैंने जवाब दिया ..

गर्मी सर्दी से क्या डरना
दोनो ही मुझसे घबराते हैं !
श्याम वर्ण चेहरे को मेरे
जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!
.. विजय जयाड़ा
 
 

वन उपवन तुम ....



वन उपवन तुम उड़ती रहती
किसी फूल पर नहीं ठहरती
विश्राम करो अब है मधु रानी !
सारा दिन तुम मेहनत करती !!

... विजय जयाड़ा

              सफ़र में बेटी दीपिका ने लम्बे धैर्य के बाद आखिरकार जंगल में छोटे-छोटे फूलों पर मंडराती, ना-नुकुर करती इस मधुमक्खी को कैमरे में कैद कर ही लिया !!


डाळियों पर ...



डाळियों पर
जौंद्याल पड़ग्यन !
बल_ सड़क चौड़ी होणी छ,
कुज्याणी कब__
यन छैळु मिल्लु !
सोचि_ ज्युक्ड़ी खुदेणि छ !! 

... विजय जयाड़ा
( जौंद्याल = बलि देने से पूर्व पशु पर डाले जाने वाले अभिमंत्रित चावल )
 
 

दिल्ली बिटि अयुँ छ !!



दिल्ली बिटि अयुँ छ !!

दिल्ली बिटि अयुँ छ
गौं मा शान दिखौणु छ
कभि कपड़ों कु ब्रांड __
कभि कीमत बतौणु छ !
लगायुं छ काळु चश्मा
गौं मा हीरो बण्युँ छ
बढ़ीं चढ़ीं छुईं लगौणु
बस फट्टि मान्नु छ !
देखा वेकि चाळ ढ़ाळ
विदेशी बण्युँ छ
सेवा सौंळि छोड़िक्
हाय हैल्लो कन्नु छ !
नाता रिश्ताों की__
बात नि करा
सेकुलर बण्युं छ
दाना ज्वान सब्यों तैं
आंटी अंकल भट्याणु छ !!
दिल्ली बिटि अयुँ छ
गौं मा शान दिखौणु छ
कभि कपड़ों कु ब्रांड __
कभि कीमत बतौणु छ !

                                                                 .. विजय जयाड़ा
  
                 दरअसल एक गाँव में शादी में गया था वहां आँखों देखी को शब्द रूप में लिखने का मन हुआ ! रचना में उन लोगों का व्यवहार वर्णित है... जिनकी एक-दो पीढ़ी महानगरों में आकार बस गई थीं उन्होंने बहुत संघर्ष किया. अब उनकी दूसरी तीसरी पीढियां यहाँ के वातावरण में रच बस गयी हैं.. समय के साथ वे अब संसाधन संपन्न भी हो गए.कुछ वर्तमान पीढ़ी के लोग ही नहीं बल्कि मेरी उम्र के कुछ लोग भी जब शादी, पूजा आदि कार्यों के अवसरों पर अपने गाँव पहुँचते हैं तो सीमित संसाधनों में भी संतुष्ट, गाँव वासियों पर अपनी ओछी हरकतों और बढ़ी-चढ़ी बातों से महानगर की चकाचौंध और अपनी सम्पन्नता की धौंस जमाना चाहते हैं.

स्नेहासिक्त जन-जीवन हो......



स्नेहासिक्त जन-जीवन हो

दंभ, दर्प यथेष्ट नही
अभिप्रेत आचरण उचित नही,
संत्रास मुक्त जन-जीवन हो
अतिरंजना स्पृहणीय नहीं.
अनुभूतिसिक्त उदयांचल हो,
पुष्पित वसुधा के
ममतामयी आँचल में,
करुणापूरित अस्तांचल हो.
त्याग संवलित मनोदशा
अनावरणित जन-जीवन हो.
सुर-सरिता लावण्य भरी
शुभ भावों का आरोहण हो,
त्याग परस्पर बैर भाव..
    स्नेहासिक्त जन-जीवन हो...... 

^^ विजय जयाड़ा 17/05/14

( दंभ= इगो दर्प =अभिमान , यथेष्ट.=उचित, अभिप्रेत= जानबूझकर intentionally, संत्रास = डर,भय, अतिरंजना= अतिश्योक्ति , स्पृ्हणीय = श्रेष्ठ . उत्तम )

Sunday 15 May 2016

मैं सत्य हूँ .....



   मैं सत्य हूँ

संवेद्य हूँ
उद्घाटित स्वयं को करता नहीं,
अकिंचन की आस हूँ
चुनौती प्रस्तुत करता हूँ सदा,
परत दर परत उघड़ना ही नियति है
अनवरत चलते हुए.
अविच्छिन्न बिम्ब हूँ
विच्छिन्न सा लगता सदा,
आडम्बरों और भ्रम-जाल को
तोड़ने का बल मुझमे बसा.
सार बाल-तरुण-यौवन-बुढ़ापे का
सब मुझमें रमा !!
हारे हुए की साँस हूँ
अनादि .. अनंत ..अविनाशी हूँ ..
अडिग हूँ........मैं सत्य हूँ .....

  विजय जयाड़ा . 14/05/14

बचपन में फिसलने का..



बचपन में फिसलने का कुछ अलग ही मजा था,
फिर खुद को संभाला इतना कि फिसलना ही भूल गए !!

..... विजय जयाड़ा


अनकहे शब्दों का..



अनकहे शब्दों का बोझ
हर बोझ से
भारी होता है,
सिर से उतरता है तब___
जब सुनने वाला
कोई अपना करीब होता है ..

.. विजय जयाड़ा


Saturday 14 May 2016

गिरने लगी हैं छत !







   गिरने लगी हैं छत !
         घरों में___
दौड़ती छिपकलियाँ
सुनसान झरोखे हैं
सूनी सूनी बीथियाँ ...
उदास___ इंतज़ार में
घर हो रहे खँडहर
 कहते है बंद किवाड़
     लौट आएँगी चाबियाँ ...
... विजय जयाड़ा

कभी मंद मंद



कभी मंद मंद
कभी उछल - उछल
बहता अविरल
निश्छल-निश्छल..
नहीं घाट बाट का
भेद कोई
ना ही अपना पराया
उसका कोई ..
जीवन मूल
   युग युगों से है
मृदुल जल निरंतर
    अविरल विमल ...
उतर उत्तुंग शिखर
भाव विह्वल
वसुधा अन्त:स्थल से
निकल-निकल
बहता निनाद कर
झल-मल कल-कल
बहता निनाद कर
     छल-छल कल-कल ....
.. विजय जयाड़ा


पास रहकर ही__





    पास रहकर ही__
रिश्ते नहीं संवरते !
    दूर रहकर भी __
दिलों में खिलते हैं !!
   धरती औ फलक का__
मिलन देखा किसने !
मगर रूहानी रूप में
  हमेशा साथ होते हैं !!
.. विजय जयाड़ा

उदास बांज



पिंग्ळा सोनाकि धकाधूम !
हरयाँ बंज्याण् घटणा छन्
हरयुं सोनु होयुं छ उदास
धारा पंध्यारा सुखणा छन् !!
.. विजय जयाड़ा

भावानुवाद ...
पीले सोने की चकाचौंध में !
बाँज के जंगल सिकुड़ रहे
सोना हरा उदास बैठा है
श्रोत पानी के अब सूख रहे !!

(पीला सोना= Gold, हरा सोना= बांज, Oak का पेड़, जिसे उपयोगिता के कारण पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है)