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Monday 27 August 2018

चाँद का मज़हब


चाँद का मज़हब 

मजहबी बातों से 
दिल भर गया 
अब चाँद का भी____
मजहब तय किया जाय !
तो क्या 
ईद को निकले तो___
चाँद मुसलमां !
चौथ के चाँद को हिन्दू कहा जाय !!
.... विजय जयाड़ा


Sunday 19 August 2018

गंगा



 गंगा
युगों - युगों से बहती अविरल
तन मन कर देती है विह्वल
बढ़ता पथिक तब थम जाता है
दिखती है जब गंगा निर्मल ...
दिवस निशा समय हो कोई
हरपल जीवन गीत सुनाती
ऋतु बेशक हो चाहे कोई
अपनी धुन में गाती जाती ...
गोद में जड़ चेतन उसके
मुदित प्रफुल्लित शीतल शीतल
टकराती नित पाषाणों से
बहती फिर भी कल कल छल छल
गति बाधाओं में भी निरंतर
भेद भाव न कोई कमतर
बलखाती बहती वो निश्छल
कल-कल छल-छल कल-कल छल-छल ...
...
अनहद


इंसानियत को बिसरा दिया ...




इंसानियत को बिसरा दिया 

रोज ईमान औ भगवान बदलते हो !
हम जैसे थे वैसे ही हैं अभी 

फिर हमको लंगूर___

खुद को इंसान क्यों कहलाते हो !!

...अनहद


घटाटोप घन गहराना....



घटाटोप घन गहराना
निश्छल मन क्यों वीराना !
दूर ! थिरके जोत उजाले की
फिर बढ़ चला पथिक अंजाना ...
..
अनहद


कोई गिरजाघर में ढूंढे ....





कोई गिरजाघर में ढूंढे 
कोई गुरुद्वारे कोई शिवाला !
खोज में काबा तक जा पहुंचे 
पर जल बिन कौन जग रखवाला !!
... 
अनहद



खुशियाँ





खुशियाँ 

अभावों में पलते
जूझते ही रहते हैं
टुकुर टुकुर बेबस
ताकते रहते हैं
सपने अनेकों
उनकी भी आँखों में हैं
इच्छाएं दिलों में
उनकी भी पलती हैं
मासूम इच्छाओं की
हम सब भी कद्र करें
उनके बेरंग जीवन में
हम मिल के रंग भरें
उपहारों खुशियों से
उनके जीवन में भर दें रस
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस ..
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस..
...
अनहद


कोशिश बहुत की ...




कोशिश बहुत की मगर वक्त थमा नहीं 
अब खुद रुका है वक्त, रुका रहने दो !
आवाज़ देके हमको जगाना ना अब कभी
बेघर कर दिया, कब्र में तो सोने दो !!
.....
अनहद


बे-उसूल राजनीति के .....


बे-उसूल राजनीति के 
पनपते कंटीले दरख़्त 
और.. 
असमय पत्तों की 
सरसराहट का थमना !
फिर...
उसूलों के बरगद का
इस जंगल में 
चुपचाप यूँ गिर जाना .... !!

राजनीति के शिखर पुरुष ...अलविदा !! 

सड़क



सड़क

संकरी चौड़ी
सड़कों के
हर नए मोड़ पर 
अलग-अलग मौसम
मिलते हैं यहाँ
मगर
दौड़ती गाड़ियों संग__
दौड़कर
धुआं हो जाती है जिंदगी.
ठौर की तलाश में
अंतहीन सड़कों पर___
निरन्तर
भागती दौड़ती है जिंदगी..
..
अनहद


हिमालय से उतरकर



हिमालय से उतरकर
हिमालय से उतरकर आया मैं
अथक निरंतर चलता मैं
लरजता मैं गरजता मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
तट हैं निरंतर साथ मेरे
प्यासे आते पास मेरे
मैं पथिकों का सहारा हूँ
चिर पथ का अनथक पथिक हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं...
दिवस निशा नहीं थाह मुझे
न किसी से यहाँ मोह मुझे
इक दूजे में भेद न कर
सुख दुःख में सबके साथ हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं ...
बाँध दिया बंधों में मुझको
नादानी पर इतराते हो
अल्हड बहना चाह मेरी
प्रकोप से फिर क्यों डरते हो
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं__
लरजता मैं गरजता मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
... अनहद


अतीत का आँगन



अतीत का आँगन 
अतीत के आँगन में
अतीत का हिस्सा बन गए
वर्षों पर पड़ी
गर्द की चादर
उठाने में मशगूल था !
तभी !
यादों की गठरी लटकाये
उसी आँगन में
खुद के लिए
जगह की तलाश में
एक और वर्ष
करीब आकर खड़ा हो गया !
मैंने कौतुहलवश पूछा ..
फिर कब मिलोगे ?
मिलोगे भी या नहीं ?
कुछ गंभीर हुआ
फिर बोला..
जरूर मिलूँगा !
मगर तब___
जब यादों से मिलने
मुझ पर पड़ी
धूसर चादर को उठाने
फुरसत से___
तुम मेरे पास आओगे
यादों की गठरी संग 
अतीत के इस आँगन में ही पाओगे ..
.. अनहद 

भगीरथ



भगीरथ
     खुद के लिए__
अपनों के लिए
कुछ कर गुजरने में
बीत जाती है जिंदगी
निन्यानबे के
फेरे में
खुद तक सिमट कर
रह जाती है जिंदगी..
क्या पाया !
क्या खोया !!
मैंने अच्छा किया
उसने बुरा किया
 इकतरफा__
हिसाब के कागज पर
 घिसटकर__
अंतिम पायदान तक
पंहुच जाती है जिंदगी..
विरले होते हैं
जो जीने के मायने
बदल देते हैं
जीवन की नई परिभाषाएं
गढ़ देते हैं..
अपनों के लिए प्रायः
सभी जीते हैं
मगर कुछ भगीरथ !
      खुद के लिए ___
अपनों के लिए ही नहीं जीते !!
अजनबियों का जीवन भी
  आसान कर__
दिलों में अमर हो जाते हैं ...
...
अनहद 

अलकनंदा, भागीरथी संगम, गंगा नाम उद्गम तीर्थ, देवप्रयाग, उत्तराखंड


कोई गिरजाघर में ढूंढे ....



कोई गिरजाघर में ढूंढे 
कोई गुरुद्वारे कोई शिवाला !
खोज में काबा तक जा पहुंचे 
पर जल बिन कौन जग रखवाला !!
... अनहद 

पैंडुलम




पैंडुलम

कभी यहाँ !

कभी वहां !!

घड़ी के पेंडुलम सा 

डोलता जीवन

विराम ! अभिराम !! 

थाह नही ...

अंत नहीं

 स दौड़ का 

शायद कभी न समाप्त होने वाळी 

जिंदगी की दौड़ का !!

.. अनहद





कुछ यूँ बोले अहसास..




कुछ यूँ बोले अहसास
             मुझे काव्य और काव्य शिल्प का ज्ञान नहीं !! बस यूँ ही जो मन में आता है काव्य मापनी से बेपरवाह उसको शब्दों में ढ़ालने का प्रयास करता हूँ. आपका निरंतर उत्साहवर्धन मिलता रहता है तो लिखने की ऊर्जा मिलती रहती है. आप सभी स्नेही गुणी साथियों का सदैव दिल की गहराइयों से शुक्रगुजार हूँ.
तहेदिल से शुक्र गुजार हूँ, साधुवाद के पात्र श्री Rajesh Kummar Sinha साहब का, जिनके अथक परिश्रम व लगन से अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली से प्रकशित साझा काव्य संकलन " कुछ यूँ बोले अहसास " में 34 रचनाकारों की रचनाओं को स्थान मिला.
साथ ही आदरणीय डॉ. सुरेश सारस्वत जी का बहुत-बहुत धन्यवाद जिनके विद्वत मार्गदर्शन के फलस्वरूप रचनाएँ पुस्तकीय स्वरुप ले सकीं और रचनाकारों को एक पहचान मिल सकी.
साथियों. यह साझा करते हुए हर्ष अनुभूति हो रही है कि " कुछ यूँ बोले अहसास " साझा काव्य संकलन में 34 रचनाकारों के साथ मेरी भी पाँच रचनाओं को सम्मिलित किया गया है. इस सबका श्रेय आप सभी स्नेही गुणी साथियों को देना चाहूँगा .




हम हो जाएं



हम हो जाएं


आओ ! ऐसे सफ़र पर जाएँ
जहाँ मैं और तू हम हों जाएँ
बाधा दीवारों की न वहां हो 
अम्बर खुला खिली अवनी हो..
दूर क्षितिज जब देखे हमको
मन ही मन मुस्काए रिझाए
गिरि कानन आंगन मिल झूमें
सरगम चहुदिश बांह फैलाये ..
घटाटोप घन उमड़ घुमड़ कर
वन मयूर को उकसाए
उड़ता आँचल थाम पनिहारी
मंद मंद मुस्काए लजाए ..
झर झर निर्झर कल कल नदियाँ
देख देख बलखाएँ इतराएँ
पक्षी चहकें मृग भरें कुलाचें
गुन गुन भँवरे गीत सुनाएँ ...
अपने पराये का भेद नहीं हो
मिल जुल कर वहां रैन बिताएँ
छैल छबीले इन्द्र धनुष तब
खुश हो झर झर सुमन बरसाएँ ...
आओ ! ऐसे सफर पर जाएं
जहाँ मैं और तुम हम हो जाएं ...
.... अनहद 


सुनसान है मंज़र मगर ....





सुनसान है मंज़र मगर 

कुछ ख़ास है यहाँ !

बस संग नहीं तुम 

मेरे बाकी सब है यहाँ !!

.... अनहद




गौरव गाथा


                             गौरव गाथा


पाषाण किले के आंगन में
जब गीत संगीत लहराते हैं
बढ़ते डग तब अनायास !
बढ़ते बढ़ते थम जाते हैं.
गीत संगीत तब भावमयी
कानों की प्यास बुझाता है
चहुंदिश उड़ता कोलाहल
सिमट कहीं छिप जाता है..
तपती धूप में बहती धुन
शीतल बयार सी लगती है
गौरव से सीना तनता है
जब गौरव गाथा छिड़ती है..
वीर प्रसूता मारवाड़ !
सुन देख के मैं इतराता हूं
गौरव गाथा सुनते सुनते
उस काल में मैं रम जाता हूं
...
अनहद


बांस



बांस

नि:शक्त की लाठी
गरीब का छप्पर 
हुकूमत का डंडा
मेहनतकश का टोकरा
ये बांस !
बांसुरी की तान
लट्ठमार होली की शान
अल्हड़ बेजुबान
कलमकार की कलम 
विरह की जुबान
ये बांस !
काटो ! हरियाता
गरीब का सहारा
अंतिम साथी
श्मशान तक 
साथ निभाता है
फिर क्यों तिरस्कृत...
फेंक दिया जाता है 
मरघट में
अकेला बेसहारा !!
   ये बांस !!
... अनहद