प्रवासी की चाह
पहाड़ों पर धूप भी होती है
छाँव भी
अँधेरा भी होता है
उजाला भी
जैव विविधता भी है
अप्रतिम सौंदर्य भी
पहाड़ चढ़ना
असाध्य बेशक नहीं
श्रम साध्य अवश्य है
निरंतर विजेता का अहसास
दिलाता है
मैदानों की तरफ उतरना
आसान है
नदी निर्झर बनकर
पहाड़ों का
पानी भी उतर गया
उछलता कूदता गाता
चोटों से बेपरवाह !
मैदानों की तरफ बढ़ गया
मैदान में आकर
मंद पड़ जाता है
संगीत गुम जाता है
यादों में खो जाता है
प्रवासी हो जाने का
आत्मबोध सताता है
समय के साथ ....
कुछ धरती में समा जाता है
कुछ बंधन में उलझकर
वहीं ठहरकर
मौलिकता से विलग
निरंतरता खोकर
कीचड़ हो जाता है
कुछ समंदर में समाकर
नमकीन हो जाता है !
व्यथित मन ! अंतिम चाह लिए !
जल्द बादल बनकर
घर लौटने की अदम्य चाह !
पहाड़ों पर....
झमाझम बरसकर
वहीँ थम जाने की चाह..
..... अनहद
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