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Sunday, 19 August 2018

नियति



नियति

वीरान खंडहरों में
साथ चलते
गर्म थपेड़ों संग जब
मन हुआ विराना !
तभी तुम्हारा
झूमते हुए काफी 
करीब आकर बतियाना !!
जैसे मरुभूमि में
मरुद्यान का लहलहाना
अंतस में
उमंगित भावनाओं का
सैलाब उमड़ जाना !
अभी तो
शुरू ही हुई थी गुफ़्तगू
तभी अचानक 
तुम्हारा तुनक कर
मुझसे दूर चले जाना
अधूरापन दे गया
मैं वहीँ हूँ 
आज भी वहीं !
जानता हूं तुम आओगे
जरूर आओगे !
उड़ना बेशक फितरत है तुम्हारी
मगर...
बरसना भी नियति है तुम्हारी
आज नहीं ! तो कल बरसोगे !
मगर बरसोगे ...!
खूब बरसोगे ! झमाझम बरसोगे !!
...
अनहद


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