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Saturday, 18 August 2018

टूटती शाख़ें


टूटती शाख़ें


अचानक पास से
लहराकर गुजरती हवा 
वीरान नि:शब्द
मन के समंदर में
उमंग की लहरों को उकसाकर 
हौले से... 
कान में न जाने क्या 
खुसफुसा कर
आगे बढ़ गई
सोचा ! रोकूं !
फिर से सुनूं 
हवा का स्वभाव है बहना !
यादों के अनगिनत
बिखरे पन्नों को 
हिलाती डुलाती
कुछ पल
अपनेपन का अहसास देकर
आगे बढ़ गई
सब कुछ थम गया
पहले की तरह 
इधर उधर बिखरा हुआ
समेटना चाहा
बिखरे पन्नों को 
उनमें दर्ज खूबसूरत यादों को... 
फिर से बटोरना चाहा 
जो कभी हकीकत थीं
इर्द गिर्द रहतीं थीं
करीने से संजोकर 
फिर से... 
जीना चाहता था उन्हें
कुछ देर पास रहकर
बार बार न जाने क्यों !
कुछ पास ही रह जाती हैं 
अधिकतर दूर चली जाती हैं 
आंधियों के बाद 
बूढ़े दरख़्त पर
हिलती डुलती 
दरख़्त से टूटकर 
अलग होती 
सूखी और
कुछ हरी शाखों की तरह...
......
अनहद


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