ad.

Wednesday 30 March 2016

सूर्यदेव की व्यथा



सूर्यदेव की व्यथा

सर्दी ने कमर कसी जब
सूर्यदेव बहुत सकुचाये,
मान मनौव्वल कर सर्दी का
विलंबित स्कूल में आये...

सिकुड़े-अकड़े कक्षा में पहुंचे
देर आने पर डांट लगी,
घबराए तब बहुत सूर्यदेव
घबराते व्यथा बयाँ करी...

सर्दी का मौसम है बेदर्दी
देर से मैं जग पाता हूँ,
जल्दी से बस्ता लेकर मैं
स्कूल को चल देता हूँ...

जल्दी में टोपी-दस्ताने
घर पर भूल आता हूँ !
रास्ते में कुहरा ही कुहरा
ठंड कंपाने लगती है !
वापस जाकर टोपी दस्ताने लाने में
स्कूल देर से आता हूँ...

देर आने की छूट कर दो
बस सर्दी के मौसम में,
चाहे जितनी भी जल्दी बुलवा लो
दूसरे किसी भी मौसम में...

नाक से ऐनक आँखों पर रख,
टोपी को कानों पर पहुँचाया,
समय से आना, समझाकर तब
सर जी ने पाठ शुरू करवाया..
.. विजय जयाड़ा 22/12/14

आर्तता !!



आर्तता !!

सूरज की नियति है उदय होना !
दो दिन से उदय हुआ नहीं !
चेहरे पर निराशा गहराई !
लेकिन पेट की आग उसे
फिर चौक तक खींच लाई !
आशा से नजरें उठती
कामगीर तलाशने वाले पर
शोषण की ज्वालायें दिखती
उन तलाशती आँखों पर !
काम अधिक ! पर मोल नहीं !
कमजोर का चलता तौल नहीं !
ताप शीत का गिरता जाता
जठराग्नि ताप बढ़ता जाता !
पेट की ज्वालायें ही अक्सर
समर्पण को बाध्य करती अक्सर !
दो दिन से “सूरज” उगा नहीं !
कल का भी कुछ पता नहीं !
अनिश्चितता के भंवरों में
किंकर्तव्यविमूढ़ सी “ आर्तता “
“शोषण” की बलि चढ़ जाती “ आर्तता “ !!
... विजय जयाड़ा. 25.12.14
( आर्तता= परेशानी, दर्द, पीड़ा, कष्ट )


जीवन






 जीवन

पूष की सर्दी ने जब जकड़ा
अंधेरों ने भी डराया उसे !!
तब मधुर माघ रश्मियों ने
अपने आँचल में संभाला उसे
हँसते खेलते फाग आया
मस्ती में रंग डाला उसे
चैत बैसाख हरषा रहा था
त्यों जेठ ने झुलसाया उसे !!
मेघ लेकर आषाढ़ आया
सावन ने खूब झुमाया उसे
भाया न ये सब भादों को
उमस में उमसाने लगा तब !!
आश्विन कार्तिक और अगहन ने
बाँहों में भर दुलारा फिर उसे...
उदासी और उल्लास निरंतर
जीवन भर चलता ही रहा
संघर्षों में हार न मानी जिसने
विजय ने आलिंगन दिया उसे ...
.. विजय जयाड़ा 28.12.14


मुल्क्या उलार !!



मुल्क्या उलार !!

ब्याळि सर्ग दिदा
दिनमान बलद्युँ राई,
बिच बिच मा टिपड़ांणु राइ,
ह्यूंदा का मौसम मा...
दाल भात लोभ छोड़ि
हमन् झंगोरु अर
लोखरा का कड़ेला पर
पटुड्या फांणु बणाइ,
छोट्टा मा झंगोरा अर
फांणु देखी तैं तबारि
मुक्क बणौंदा छा !!
माँ दगड़ि लड़ेंदा छा !!
वे झंगोरा फांणु पर
अब बिज्याँ उलार आइ !!
सगौड़ा त अब...
अपरा मुल्क छुट ग्यन !!
गमलों मा उपजांयुँ
मुर्या पुदीना चूंडि,
मिक्सी कु घघराट छोड़ि
सिलौटा मा रगड़ि तैं
चरचरि बरबरि चटणी बणाइ,
फांणु मा घर्या घ्यु मिलाई,
झंगोरा दगड़ि....
जल्दु बल्दु पटुड्या फांणु
खाण मा बचपन अर...
रौंत्याला पहाड़ कि
बिज्याँ याद आइ !!
दगड्यों ठट्टा नि लगान्....
   अपरि बोलि भाषा मा ...
   "मुल्क्या उलार" सुणांइ !!!
...... विजय जयाड़ा 03/01/14
 
            ( झंगोरा= शमा के चावल, फांणु= कुल्त की दाल को भिगाकर, पीसकर फिर तलकर बना पकवान)
                  रचना में उत्तराखण्ड के पकवान, झंगोरा- फांणु, को बनाकर चटनी और घी के साथ खाने का वर्णन है, ये पकवान बचपन में अच्छे नहीं लगते थे, माँ जब इनको बनाती थी तो माँ से नाराज होते थे, रचना में, जन्मभूमि से दूर रहकर इनको बनाकर खाने में, बचपन और पहाड़ की आती याद का भाव प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है ।


अमर गणतंत्र



 

अमर गणतंत्र

गणतंत्र सबको
बहुत हो मुबारक,
मगर ....
थाती लहू से सींची
उनको हम न भूलें ...
हिंदी हैं हम वतन हैं
तराना मिल के गायें,
धर्म जाति भाषा से
ऊपर वतन है
कभी हम न भूलें
जहाँ में हर दिशा में
लहरायें तिरंगा
मगर हरेक दिल में
लहराना, तिरंगा
कभी हम न भूलें
जयचंद, मीर जाफर
नहीं अब जहाँ में
छिपे गद्दारों को
पहचानना न भूलें
मतभेद बेशक
मनभेद रहे ना
शहीदों की कुर्बानी
कभी हम न भूलें
नमन शहीदों को
अमर गणतंत्र हमारा
हर दिल झूम गाये
जहाँ में सबसे प्यारा
" हिन्दोस्तां हमारा " 

विजय जयाड़ा 26.01.15

किसी ने वेध शाला कहा



किसी ने वेध शाला कहा
   किसी ने ध्रुव स्तम्भ !
कोई क़ुतुब मीनार कहे
    कोई विष्णु स्तम्भ !!


यादें



“ यादें !! “

बड़ा अजीब होता है
यादों का मिजाज !!
बिना आहट
चली आती हैं
बेधड़क !!
न समय की परवाह
न ठिकाने से सरोकार
महफ़िल हो
या हो विरानापन !!
उन्हें तो बस
चले आना है
बिन बुलाये ..
मेहमान की तरह !
पतझड़ संग आती हैं
कभी बसंत के संग !!
तो कभी चली आती हैं
समूचे अतीत के संग !!
भीड़ में भी तन्हा ..
अकेले में
हंसा देती हैं
ये निर्लज्ज यादें !
हौले-हौले से
अंतस में
समा जाना..
तय करता है
हमारा ..
मिजाज और अंदाज !
बड़ा अजीब होता है
इन यादों का मिजाज !!
.. विजय जयाड़ा 05/01/15

सरगम




सरगम

आओ सरगम इक ऐसा जोड़ें,
राग प्रीत का ऐसा छेड़ें.
हो जल की कल-कल
निखरे विहगों का कलरव उसमें.
बहे बयार तरुवर की जिसमे,
शीतलता चंदा सी हो उसमें.
पर्वत सी दृढ़ता हो उसमें,
सागर सी गहराई हो जिसमें.
योगियों का योग रमा हो,
बलिदानों का सार हो जिसमें,
ऋषियों की पुकार हो उसमें.
धर्म ध्वजा के आलिंगन में,
समरसता बरसे उसमें
छाँव मिले माँ के आँचल की,
मानवता झंकृत हो जिसमें.
सुरसंगम माँ शारदे से उपकृत हो,
स्वर लहरी वीणा से हो झंकृत
आओ मिल सरगम इक जोड़ें
राग प्रीत का कुछ ऐसा छेड़ें ..राग प्रीत का....
^^ विजय जयाड़ा


अभिलाषा



अभिलाषा

मन में उठते भाव प्रवाह को
शब्दों में बांधना चाहता हूँ,
शब्दों को माला में पिरोकर
मातृभूमि वंदन करना चाहता हूँ ...
चाह नही मंचों की शोभा बन
नेताओं का महिमा मंडन गान करूँ
उत्पीड़ित समाज की कीमत पर
अभिनन्दन का पात्र बनू..
चाह नहीं विरह विछोह को रचकर
कुंठित मैं माहौल करूँ..
वैभव के गीत सुनाकर
कुंठित दलित नि:शक्त जनों में
नैराश्य भाव संचार करूँ...
चाह नहीं शब्दों का जादूगर बन
मानव भावों का दोहन कर
पुष्प मालाओं से लादा जाऊं ....
उत्कंठाओं और अभिलाषाओं को
शब्दों का जामा पहनाकर
जन-जन को सुर देना चाहता हूँ ...
स्वार्थ और अनुरक्ति से दूर,
शब्दसागर तट पर मोती चुनकर
शब्द माला गूंथना चाहता हूँ....
मातृभूमि की सेवा में अर्पण कर
अभिनन्दन करना चाहता हूँ ....
माँ शारदे तेरे चरणों में रहकर
राष्ट्र वंदन करना चाहता हूँ...
अभिनंदन करना चाहता हूँ....
^^ विजय जयाड़ा 03.06.14

.. ऋतुराज



“ छंद मुक्त अभिव्यक्ति मंच " द्वारा बसंत आगमन पर “ चित्र शीर्षक “ के अंतर्गत आयोजित प्रतियोगिता में 42 रचनाओं में से तृतीय स्थान पर रही मेरी रचना ..

 ऋतुराज

अमवा की डाली बौर झांके
अंगना में खग,मृग वन उछलें रे
उल्लास में हरषाय ये मन
द्वारे हमारे ऋतुराज आयो रे ..
धरती ने नव वसन पहने
सोलह श्रृंगार कर निकली रे
पीत चुनरिया ओढ़ धरती
बलखाती यहाँ - वहां डोली रे..
पल्लव सकुचाय मन ही मन
एक दूसरे को देख मुसकाय रे
ऋतु उलसाय गोरी का मन
गोरी उन्मत्त चुनरी लहराये रे..
बयार छुए जो गोरी का तन...
हिया गोरी तनिक घबराये रे
हिम शिखर देखें उचक-उचक
गोरी चुनरी में मुंह छिपाय रे..
अमवा की डाली कोयल कूके
भ्रमर चित्त भरमाय रे
बाल-यौवन-वृद्ध ख़ुश हो के गाएँ
द्वारे हमारे ऋतुराज आयो रे..
.. विजय जयाड़ा

बटोही



बटोही

राह चिरंतन
चाह चिरंतन
चिरंतन बटोही
      राह का___
तन मलिन
उमंग अतिशय
    नियति___
बढ़ना लक्ष्य तक
छोड़ रेला
यादों भरा
    चलते ही जाना है उसे___
घाव उपजाए
शूल, कंकड
पथ की मिटटी से ही
      भर देने हैं उसे___
तन से बहता
स्वेद अनवरत
उत्साह की
      अभिव्यक्ति है___
आसरा देता
हर ठिकाना
     गवाह___
    दृढ संकल्प का है___
इरादों से अनभिज्ञ !!
लक्ष्य तक
    पोषित करते उसे__
जल-प्रपात
    तरु छाँव और मंद बयार__
मन में रचा जो
बटोही को है
बस उसका पता !
       चाह___
अमूर्त की है
या मूर्त पाकर ही
रुक जाना है उसे !
तृष्णा शांत करनी है या
     उफनते___
तृष्णा सागर की
गहराइयों में
   समा जाना है उसे !!
  विजय जयाड़ा..20.05.14
( चिरंतन = शाश्वत, निरन्तर, Ever lasting )


Tuesday 22 March 2016

एक बदलाव ऐसा भी आए !



एक बदलाव
  ऐसा भी आए !
     कि __
हर शख्स
    दरख़्त सा हो जाए !!

... विजय जयाड़ा


Saturday 19 March 2016

किंवाणी गाँव जल श्रोत , नरेन्द्र नगर, टिहरी



विकास की गंगा में
जितना ---
  ईंट गारा बढ़ा है !
  जल श्रोत हुए कुंद !
पानी ---
   उतना ही घटा है !!
... विजय जयाड़ा

         किंवाणी गाँव, नरेन्द्र नगर, टिहरी का ये जल श्रोत कभी जल से लबालब रहता था. जल कि विशिष्टता व शुद्धता के कारण, टिहरी महाराजा के राजमहल में इसी श्रोत से जल ले जाया जाता था .. लेकिन वर्तमान में .. अंजुली भर पानी लेने में वक्त लगता है !!!


हर लम्हा हसीन और खुशगवार होता है






हर लम्हा हसीन और खुशगवार होता है
    मासूम सा बचपन जब आसपास होता है !!
.. विजय जयाड़ा 

            इस वर्ष की बौद्धिक फसल तैयार है .. बस सत्रान्त में औपचारिक रूप से ये देखना बाकी है कि बौद्धिक फसल की हर बाली का कितना बौद्धिक विकास हो पाया है !!
            वर्तमान सत्र के पठन-पाठन व परीक्षाओं के दौर की औपचारिक समाप्ति का यादगार लम्हों से परिपूर्ण अंतिम दिन .. मेरी कक्षा, कक्षा-चतुर्थ के बच्चे ..

इजाजद हो गर नफरत की



इजाजद हो
गर नफरत की
तो वो मजहब नहीं !
इंसानियत से भी
      जरूरी हो ___
   कोई मजहबी किताब नहीं !!

.. विजय जयाड़ा


स्वाभिमान



स्वाभिमान

धूप निखर आई
  लेकिन !
मुंह अँधेरे बड़ा सा
  बोरालेकर दौड़-दौड़
कचरा बीनने वाला छोटू
  सोया है अब भी 
  असर लोगों की फटकार,
वितृष्णा का है  या
   स्वाभिमान की पुकार
   अब दिनचर्या बदली गयी है
सब जगते हैं
   वो बेसुध सोता है
  जब सब सोते हैं
 कद से बड़ा
  बोरा लिए
उम्मीदों के साए में
   निकल पड़ता है
सूर्य रश्मियाँ
खोजती हैं उसे
इस लोक में
स्वयं को
तिरस्कार और घृणा के
दायरे से दूर,

पहुँच जाता है
  छोटू स्वप्न लोक में
  स्वाभिमान की छाँव में
   जीना चाहता है !
अन्तर्द्वंद से निकल,
अंतर्मन की चाहत
    पूरी करना चाहता है !!
  .. विजय जयाड़ा


Thursday 17 March 2016

यादें



 यादें

  नि:शब्तता के बीच 
    कोयल की कूक !!
अनायास
मदमाती बयार का झोका
अतीत के पलों को
  याद दिलाती कोयल की कूक !
न जाने किस चाहत में
बसंत आते ही
आंगन के नीम पर
अपनी धुन में
   कूकने लगती है !
अजीब हलचल के साथ
   ह्रदय में भारीपन साथ लाती है !!
मन हिलोरे लेता है,
कभी अतीत में
ठहर जाता है !!
तभी घर के पिछवाड़े
पुराने बरगद पर
काँव- काँव करते
कागा का स्वर सुनाई देता है
न जाने क्यों लोगों को
   कागा का सुर नहीं भाता !
  मुझे बहुत भाता है 
शायद स्वार्थ है मेरा
तन्द्रा को आघातित कर
यादों के समंदर से
सहजता से वर्तमान में
ले आता है वो कागा,
मन को हल्का कर
उत्साह जगाता है वो कागा
शायद इसीलिए
मुझे बहुत भाता है कागा
^^ विजय जयाड़ा

आसमां पर टकटकी लगाये




       आसमां पर___
टकटकी लगाये
अब किसका इंतजार है !
छोड़ अपनों को उधर
   परिंदा बे सुकून है !!

भीड़ से आगे निकलना
जुनूँ ____ बेशक खूब सही
       मगर ____
अपनों को छोड़ देना अकेला
   देता कब सुकून है !!

.. विजय जयाड़ा
 
 

नव सोपान



नव सोपान

स्वयं से संवाद
मुश्किल होता है
     मगर __
नामुमकिन भी नहीं !!
पूछो कई सवाल !
     अंतस का __
अहम भेदी प्रतियुत्तर
सदैव एक सा होता है ..
लेकिन कौन
स्वीकार पाता है !
स्वीकारना !
बेशक कठिन होता है
     मगर ___
अहम् तज कर
कुछ स्वीकारते हैं
प्रायश्चित कर __
अपराध बोध से
मुक्ति पा लेते हैं
धीरे धीरे ही सही
     लेकिन ___
जीवन संवार लेते हैं
अंतर्द्वंद्वों को विजित कर
    नव सोपान रच लेते हैं ..
... विजय जयाड़ा


Monday 14 March 2016

समय




 समय

गतिमान हूँ सृष्टि में,
आदि न अंत
कोई समझ सका,
आगे न मुझसे बढ़ा कोई
न मुझको कोई लौटा सका.
सतयुग से कलयुग तक,
पोषण चार युगों का
करता मैं चला
दिग दिगांतर
अविराम मैं चला,
आलोच्य हूँ सदा से मैं,
अनहोनी पर कोसा गया,
निर्लिप्त और निस्वार्थ रहा
कर्मवीरों के संग
निरंतर चलता गया,
चलना निरंतर नियति मेरी
विराम द्योतक प्रलय का,
दिन अट्ठारह महाभारत चला
मैदान रण कुरुक्षेत्र का
जीवन अब महाभारत है
कुरुक्षेत्र खुद मानव बना
  मन बना चक्रव्यूह है
   कौन उसको तोड़ सका
     नित अभिमन्यु ..
मारे जाते हैं जहाँ
   वेद व्यास कौन बना
सेनाएं नहीं
कौरव पांडव सी
 युद्ध मौन अंतस बढ़ा
सृजन महाभारत फिर
गवाह महाभारत का बना.
अहंकार अस्त हुआ सदा
असहायों को बढ़ते देखा,
इतिहास समाया मुझमें
   सार उसका यही पाया...
अडिग रहा जो सत्य पर
     समय सारथी वही बना !!
 
विजय जयाड़ा

Saturday 12 March 2016

अंधेरे न मनाएं जश्न अभी से .....



अंधेरे न मनाएं जश्न अभी से,
बुझे चिराग फिर से रोशन होने को हैं !

सफर में भटक गई थी कश्तियाँ !
अब लौट के साहिल पर आने को हैं !!
 
.. विजय जयाड़ा

सियासत रंगी गई रंगों से बहुत ...



सियासत रंगी गई रंगों से बहुत
  मगर रंग-ए-अमन न जाने गम गया कहाँ !

काबू में रहा मर्ज तो बदलते रहे हकीम
   नासूर बन गया अब शिकायत करें कहाँ !!
 
^^ विजय जयाड़ा

विज्ञान



विज्ञान

विज्ञानमयी हुई अब दुनिया,
मानव विस्मित पर खुशहाल है,
गुज़रबसर के उपकरणों और
बस्ते की चीजों में परिलक्षित विज्ञान है !!
कंदराओं से खेतों फिर शहरों तक
मानव को लाया विज्ञान है !!!
मुझको आपसे सम्बद्ध करते
इस ध्वनि यंत्र में भी समाया विज्ञान है !!
गंगोत्री से निकली गंगा,
प्रकृति का वरदान है,
ज्ञानगंगा को कायम रखते
कागज कलम स्याही कंप्यूटर,
ज्ञान सरंक्षक और परिमार्जक
विज्ञान प्रदत्त उपहार है,
सफ़र शुरू हुआ बैलगाड़ी से,
मिशन चंद्रयान तक जा पंहुचा,
इस दौरान सूत कातती बूढी अम्मा,
चंदा से जाने कब कहाँ चली गई !!
मानव निर्मित उपग्रहों के अन्वेषी साए में
ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों की अब,
जैसे नित रहस्यमयी बरसात हुई !!!
मोबाइल में ही सिमट गया
अब जैसे सारा संसार है,
सिमटे सात समंदर पार के किस्से,
दूर देश भी लगते बिलकुल पास है.
स्लोगन, ‘ कर लो दुनिया मुट्ठी में ’
अब सच में साकार हुआ,
तीनों लोकों की तिलिस्मी दुनिया से
अब मानव का साक्षात्कार हुआ.
हर जैविक,भौतिक,रासायनिक घटना को
‘क्या-क्यों-कैसे’ की कसौटी पर मानव खंगाल सका.
बंधन से अंधविश्वासों के भ्रमजाल से मानव को,
कोई और नही,विज्ञान ही निकाल सका !!
वर्णित शास्त्रों वेदों में है,
कण कण में रमता भगवान् है,
गॉड पार्टिकल या ‘भगवत कण’ के
मूल में,समाया यही शक्तिसार है.
या कहूँ मूर्त रूप में भगवत कण में
ईश् शक्ति का करवाया दीदार है.
क्या !! समृद्ध विज्ञान के स्वामी,
कुछ मानव देव कहलाये थे !!!
क्या !! कर, सुमेरु पर्वत का अवस्था परिवर्तन !!
समूचा पर्वत ही पवनपुत्र उठा लाये थे !!!
कुछ कल्पनाओं के सागर में
मैं गोते अक्सर लगाता हूँ,
उतराते कल्पना सागर में विज्ञान को ही पाता हूँ !!
कणाद,आर्यभट्ट, सुश्रुत की थाती को
रमन,स्वामीनाथन,भाभा,कलाम ने आगे बढ़ाया है,
मिसाइल, कंप्यूटर, दूरसंवेदी उपग्रह और
प्रक्षेपण क्षेत्रों में भारत को शीर्ष तक पहुँचाया है.
मानव कल्पनाओं को मूर्तरूप देकर,
जन जन तक पहुँचाना ही विज्ञान है,
लेकिन मानव के कुत्सित कर्मों से,
विज्ञान कहलाता कभी अभिशाप है !!
अनियंत्रित मशीनीकरण की होड़ में
विनाश ही गहराया है,
त्वरित लाभ में प्रकृति दोहन का साथी बन,
विज्ञान में सृष्टि का विनाश भी समाया है. ,
एक साधन है विज्ञान मगर
मानव ने ‘शक्ति’ इसे बनाया है !!
अहंकार की वेदी पर युद्धों में
निर्दोषों का खून बहाया है !!
जियो और जीने दो, को कर अनुसरित,
जनहित में ही विज्ञान अपनाना है
बने भारत विज्ञान जगत गुरु,
नन्हे वैज्ञानिकों में, ये भाव जगाना है..
समय अनुपालक यंत्र (बजर) के अनुपालन में
विराम शब्दों पर यहीं लगता ह
इस यंत्र की तकनीकी में भी,
विज्ञान को ही पाता हूँ. 

    रचयिता व प्रस्तुतकर्ता ...
विजय प्रकाश सिंह जयाड़ा / 05.02.14
EDMC विद्यालय त्रिलोकपुरी 28-I
नयी दिल्ली

अभिलाषा




अभिलाषा

  हे दयानिधे !!
भावों में आ
छद्म, कपटी
विचारों से हटकर,
निरंतर,
नित्य कर्मों में,
मेरे
कर्मपथ में आ.
हे करूणानिधि
मिथ्या है जगत
ये सत्य है.
लेकिन
सत्य ये भी है
कि नियंता है तू
विचलन
कर्म पथ से और
मन चंचल,
जब हो मेरा 
गुरु रूप में,
तब दर्शन दिखा.
हे भक्तवत्सल
माध्यम
भाव पूजा ही
समर्पण है मेरा
चरणों में तेरे
नही भावरहित समर्पण
व्यवहार में मेरे
ये तुझ से नही छिपा
कर विरक्त
मिथ्या आलंबनों से,
जगत आडम्बरों से
मोह भंग कर.
कर आलोकित ह्रदय तल,
रूप में किसी एक आ,
ह्रदयस्थ हो, अब
ज्ञान-दीपक जला..ज्ञान दीपक जला !!
 ^^विजय जयाड़ा
 

हमदर्द मोहब्बत के हैं यहाँ सभी






हमदर्द
मोहब्बत के हैं यहाँ सभी
मगर
  नफरत ही फलती है यहाँ !!
तलाशता हूँ
उस जमीं को इधर-उधर
मोहब्बत
    पनपती हो जहाँ ...
... विजय जयाड़ा

मैं कौन हूँ !




कौन हूँ !!

 पूछते हो
कौन हूँ !!
ऊँचे मंचो से
दहाड़ता, बरगलता
कोई नेता नही !!
सिंहासन पर
स्वर्ण मुकुट धारण किये !!
माया से विरक्ति का
राग अलापता “ संत “
तो बिलकुल भी नही !!
स्व वैभव प्रचार में
गरीबों को “दान” देता
“मुस्कराता”
तस्वीरें खिंचवाता
कोई “अमीर” भी नही
दरिद्रता व फटेहाल
गरीबों के “संग गुजरे”
चंद लम्हों की तस्वीरों
का “सौदागर” मैं नही
मैं सुप्त हूँ
सुप्त ज्वालामुखी
हलचल से कम्पित होगी “धरती”
लावे की उष्णता से
काल कवलित
हो जायेंगे असंख्य प्राणी
लेकिन उष्णता निवृति
के बाद निर्मित होगी
शांत उर्वर भूमि
ये जानता हूँ
फिर भी मौन हूँ
इसीलिए पूछते हो
कि मैं कौन हूँ !
मैं परदेशी नही
तेरे अन्दर में समाया
"ज़मीर" हूँ !!
अंतरात्मा की आवाज हूँ
पर मौन हूँ
  क्यों पूछते हो
   मैं कौन हूँ !
^^ विजय जयाड़ा

Friday 11 March 2016

निभाना भी धरम है




   > निभाना भी धरम है <

जीवन में अगर गम हैं
तो खुशियाँ भी कम नहीं
पथ में अगर शूल हैं
   फूलों की भी कमी नहीं ..

अंधेरों के बाद उजाले
   जब उसका ही करम है !
विश्वास है भगवान् पर
     तो निभाना भी धरम है ...

... विजय जयाड़ा


Thursday 10 March 2016

छलावा !



.. छलावा ! ...

मोहक सुकोमल
पुष्प को
शूलमय तने पर देख
स्नेहिल हाथ
उस तरफ बढ़ जाते हैं
नर्म अहसास
देने के उपक्रम में
कंटकों से
लहुलुहान हो जाते हैं !
मगर आश्चर्य !!
विदीर्ण हाथों को देख
पुष्प दुखी नहीं !
मुस्कराते हैं !!
शायद __
काँटों में उलझा होना
पुष्प वेदना नहीं !
कैक्टस का दिखावा है
आकर्षित करना___
ह्रदय विदीर्ण कर
खुद खुश होने के अनुक्रम में
कैक्टस का एक छलावा है !!
.. विजय जयाड़ा

Tuesday 1 March 2016

सुनी जो आहट ..


सुनी जो आहट
सोचकर__
परिंदे घबरा गए !
अपनी दुनिया से निकल
"इंसान" ! इधर भी आ गए !!


.... विजय जयाड़ा