सिमटती काया
मुरझाती आँखों से
सिकुड़ी बाँहों ..
लटकती खाल को
अपलक निहारता ..
आज फिर उदास
सोच में डूबा हुआ है !
बसंत फिर आया
उस तक नहीं आया !
अब न बतियाती
पत्तियों की सरसराहट
न पक्षियों का कलरव
वीराना सताता है उसे !!
तितलियों और भंवरों को
खुद पर मंडराते
देखे भी मुद्दत हुई !!
शाखों पर लटककर
बच्चों का खुश होना
बहुत गुदगुदाता था उसे !!
थके राहगीरों पर
स्नेह और छाँव के
ताने – बाने से बुनी
चादर हौले से उढाना..
गुपचुप उनकी
हंसी-ठिठोली सुनना
बहुत भाता था उसे !!
हर तरफ बसंत !
लेकिन वो अकेला ही है !
अतीत ही .. अक्सर
उस सिमटती काया से
कुछ बतियाता है..
यादों से गुदगुदाता है ..
फिर छोड़ जाता है..
उदास ... अकेला ...
बिलकुल .. अकेला !!
सिकुड़ी बाँहों ..
लटकती खाल को
अपलक निहारता ..
आज फिर उदास
सोच में डूबा हुआ है !
बसंत फिर आया
उस तक नहीं आया !
अब न बतियाती
पत्तियों की सरसराहट
न पक्षियों का कलरव
वीराना सताता है उसे !!
तितलियों और भंवरों को
खुद पर मंडराते
देखे भी मुद्दत हुई !!
शाखों पर लटककर
बच्चों का खुश होना
बहुत गुदगुदाता था उसे !!
थके राहगीरों पर
स्नेह और छाँव के
ताने – बाने से बुनी
चादर हौले से उढाना..
गुपचुप उनकी
हंसी-ठिठोली सुनना
बहुत भाता था उसे !!
हर तरफ बसंत !
लेकिन वो अकेला ही है !
अतीत ही .. अक्सर
उस सिमटती काया से
कुछ बतियाता है..
यादों से गुदगुदाता है ..
फिर छोड़ जाता है..
उदास ... अकेला ...
बिलकुल .. अकेला !!
..विजय जयाड़ा
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