परछाई
रिश्तों के बदलते मायनों,
बुत होती इंसानियत पर
अपनी ही परछाई से
झुंझलाहट में सवाल दर सवाल
किये जा रहा था
वो मेरे पीछे जा खड़ी हुई
निरुत्तर सी !
पलट कर देखा
मेरी ओर बढ़ रही थी
शायद जवाब देने !!
सूरज सिर के ऊपर कब चढ़ आया
पता ही न चला !
अचानक परछाई गायब हो गयी !!
एक शोर सुनाई दिया
परछाई अंतर्मन के
हर दरवाजे पर दस्तक देकर
मेरे सवालों का
जवाब मांग रही थी !!
सूरज उतार पर था
जवाबों की पोटली खोले
परछाई अब सामने खड़ी थी,
हर सवाल का सुगढ़ जवाब
मुझे चौंधियाने लगा था
चौंध से दूर भागना चाहता था,
मगर !!
अंतस को जगा
चौंध मद्धिम होने लगी
सांझ गहराने के साथ बढती परछाई
अँधेरे का पहरा होने तक
मेरे सुप्त अंतस को जगा
मुझमे ही समाने लगी थी ...
सवालों का जवाब मिल चुका था
सवाल भी खुद ही था और जवाब भी !
बुत होती इंसानियत पर
अपनी ही परछाई से
झुंझलाहट में सवाल दर सवाल
किये जा रहा था
वो मेरे पीछे जा खड़ी हुई
निरुत्तर सी !
पलट कर देखा
मेरी ओर बढ़ रही थी
शायद जवाब देने !!
सूरज सिर के ऊपर कब चढ़ आया
पता ही न चला !
अचानक परछाई गायब हो गयी !!
एक शोर सुनाई दिया
परछाई अंतर्मन के
हर दरवाजे पर दस्तक देकर
मेरे सवालों का
जवाब मांग रही थी !!
सूरज उतार पर था
जवाबों की पोटली खोले
परछाई अब सामने खड़ी थी,
हर सवाल का सुगढ़ जवाब
मुझे चौंधियाने लगा था
चौंध से दूर भागना चाहता था,
मगर !!
अंतस को जगा
चौंध मद्धिम होने लगी
सांझ गहराने के साथ बढती परछाई
अँधेरे का पहरा होने तक
मेरे सुप्त अंतस को जगा
मुझमे ही समाने लगी थी ...
सवालों का जवाब मिल चुका था
सवाल भी खुद ही था और जवाब भी !
... विजय जयाड़ा
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