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Saturday, 10 October 2015

भावातिरेक


...... भावातिरेक .....

भावों के अतिरेक में अंतर्मन
जब शब्दों को टटोलता है,
शब्दों का कुनबा जाने क्यों
  कहीं अंतस में गुम जाता है !

तस्वीर सजीव हो उठती हैं
 पर्वत बाहें फैलाने लगते हैं,
घाटियाँ पसार गोद अपनी
स्नेह लुटाने को उमड़ती हैं. 


उलाहना दिया रास्तों ने तभी
  वादा कर क्यों तुम आये नहीं !
सूना दिन और रात गुजरती हैं
  बाट निहारते हम सोये नहीं !


.. विजय जयाड़ा 10.10.15


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