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Thursday, 1 October 2015

मनचाहा आसमान !!


मनचाहा आसमान !! 

 गुदगुदाता है
चलना सिखाता है
गिरते हैं तो
हौले से उठाता है
   चलने लगते हैं तो ..
गर्म हवाओं से डराता
शीत के शूल चुभाता
पतझड़ का खौफ दिखाता
धकेल देता है
   पथरीली राहों पर !!
मगर ! मदमाते बसंत से
उत्साहित भी करता है
  अँधेरों से डराता है !
   उजाला भी संग रखता है ..
खुश होकर पास आता है
फिर रूठ कर
   बादलों में छिप जाता है !!
झुकता है कभी झुकाता है
मगर सबको लुभाता है
कुछ पर ही क्यों मेहरबान
   हो जाता है आसमान !!
बेसहारों से ही हमेशा
   क्यों रूठा रहता है आसमान !!
ऊँगली पकड़ उनको,
राह, क्यों चलाता नहीं आसमान
क्या सबको मिल पाता है
   मनचाहा आसमान !!

.. विजय जयाड़ा 

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