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Tuesday, 6 October 2015

समागम !!


समागम !!

कल्पना सागर में उतरता
   शून्य में कुछ टटोलते हुए ..
   झरोखे से झाँका !!
   सहसा !!
  चाँद को पूरे यौवन में..
   करीब पाया !! बहुत ही करीब !!!
   इतना करीब की छू सकूँ !!
बतिया सकूँ..
बोझिल ह्रदय में जैसे
   उमंगों का सैलाब उमड़ा !!
कल्पनाओं को. 
  मूर्त रूप मिला !!
मौन को ...
  अभिव्यक्ति मिली !!
    उम्मीदों को पंख लगे ...
   आसक्ति जगी !! 
   आलम्ब मिला !!!
सहसा हकीकत से
   साक्षात्कार हुआ !!
   आज तो पूर्णमासी है !!
   अंधेरों की कल्पना सताने लगी....
मन फिर से बोझिल
   समंदर में उतराने लगा !!
मंद-मंद
चांदनी बिखेरता चाँद भी
अमावस के
अंधियारों के आगोश में
   कहीं समा गया !!
   मगर !!
डूबते उतराते
अब चाह थी !!
हर्ष-विषाद से दूर
आसक्ति – अनासक्ति
      और .......
अंधेरो -उजालों के
समागम से मिलन की !!
वहीँ रम जाने की !!! 

विजय जयाड़ा 


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