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Friday, 30 October 2015

विचलन !!



 विचलन !!

अभाव उपेक्षा से
त्रस्त होकर मानव,
अक्सर विचलित__
उदास हो जाता है।
काँटो की सेज पर
रह कर भी__
सुकोमल गुलाब,
सबको हंसता दिख जाता है।
इठलाता है
सुगंधित उपवन,
जब भंवरा
फूलों पर मंडराता है !
उड़ जाता है
दुर्गंध की तरफ !
जब कीचड़ में
अविचलित___
कमल को पाता है !!

.. विजय जयाड़ा 30.10.15

Thursday, 29 October 2015

अमर बेल



अमर बेल

कुछ जड़ हीन बेलें
वृक्ष पर आश्रय पाती हैं
आश्रय दाता का
जीवन रस पीकर__
ऊंचा उठकर
उसको ही झुकाना चाहती है,
खुद के विस्तार की चाहत में
उपकार भुला देती है !
खुद हरियल होने की जिद में
आश्रय दाता को
निष्प्राण कर सुखा देती हैं !!
बहुत हैं ऐसी बेलें
जो समाज पर पनपती हैं
उस पर छा जाती हैं
ऊँची उठती हैं
वर्चस्व की चेष्टा में
उसी समाज को निगल चाहती हैं__
जिसने उसे आश्रय दिया
पोषित किया !!
जिसका जीवन रस पीकर
उसने जीवन जिया !!
शायद, यही आसान तरीका है !!
खुद को स्थापित करने का
“ अमर बेल “ बनकर
जीते जी ! अमर हो जाने का !!

.. विजय जयाड़ा 29.10.15


Wednesday, 28 October 2015

मजहब बहुत हैं दुनिया में ..



मजहब बहुत हैं दुनिया में
नया मजहब नहीं बनाना चाहिए,
जोड़ दे जो आपस में सबको
अब धागा एक ऐसा बनाना चाहिए ....

.. विजय जयाड़ा 28.10.15


Tuesday, 27 October 2015

माशूका की जुल्फों में क्यों कैद है शायरी !



 
माशूका की जुल्फों में क्यों कैद है शायरी !
मुफलिसों को भी अल्फाजों की उड़ान दो. 

तगाफुल की आग जल रही है मुफलिसी !
अपने आशार में मुफलिसों को जुबान दो.

दुष्यंत और अदम हम सभी को पुकारते !
शायरी को अब नया इंकलाबी रुझान दो. 

... विजय जयाड़ा 27.10.15



Sunday, 25 October 2015

भूखे बहुत हैं मेरे मुल्क में ..





हालात-ए-हाज़रा पर अर्ज़ है.. 
भूखे बहुत हैं मेरे मुल्क में
  पैरवी उनकी भी होनी चाहिए,
बहुत हुई मजहब की बातें
  अब रोटी पर चर्चा होनी चाहिए !
मजहब गर है रोटी से पहले
  मजहब में रंगा सब होना चाहिए !
आब-ओ-हवा हद में ही रहें
   उनका भी मजहब तय होना चाहिए !!

... विजय जयाड़ा 25.10.15

Saturday, 24 October 2015

अदब की आड़ में..





अदब की आड़ में जज्बातों की
  तिजारत वो करते हैं !
दिल ले लेते हैं
      मगर___
    दिल के बदले में ....
   दाग-ए-दिल दिया करते हैं !!

... विजय जयाड़ा 24.10.15


Friday, 23 October 2015

अनजान सफर


---अनजान सफ़र---

हवाओं से मिल बूंदों ने
समंदर से दूर
  उड़ जाने की रची,
अनजान सफ़र पर
उड़ा ले गयी हवाएं
  ठौर बिन बूँदें नम हुई !
विरह में अकुलाई बहुत
बेचैन मन भारी हुआ
टकराई पहाड़ से झोंखा बन,
     द्रवित हो___
तपती धरती पर बिखरकर
   अनजान सफ़र का अंत हुआ !! 


.. विजय जयाड़ा



Tuesday, 20 October 2015

दैरोहरम में मजहबों को ....



दैरोहरम में मजहबों को
कैद करने वालों !
फिरकापरस्त तहरीरों से
   इंसान बांटने वालों !!
    कहते हैं कि___
मजलूम की मदद से
मिलता सवाब है,
किसी मजलूम की मदद में
   अपने हाथ तो बढ़ाओ !!

.. विजय जयाड़ा 


Sunday, 18 October 2015

हम उदास हो जाते हैं अक्सर...



हम उदास हो जाते हैं अक्सर
किसी के दूर चले जाने के बाद !
बेशक दूर चला जाता है मुसाफिर
मगर ___
सुकूँ पाता है घर लौट आने के बाद।

.. विजय जयाड़ा 18.10.15


Thursday, 15 October 2015

शक की दीवारों पर किसी को यूँ न बिठा दीजिये


 
 
 
शक की दीवारों पर किसी को यूँ न बिठा दीजिये
दाना उठा ले जाएगा मिलेगा हम को कुछ भी नहीं !
बेफिक्र हो के मिल के लें अब जीवन का हम मजा
शक की दीवारें ऊँची कर हासिल होगा कुछ भी नहीं !

... विजय जयाड़ा





Wednesday, 14 October 2015

जिन्दा इंसान भी बुत होने लगे जब से..




जिन्दा इंसान भी बुत होने लगे जब से
यारी कर ली, हमने भी पत्थरों से तब से !!

.. विजय जयाड़ा


Tuesday, 13 October 2015

परवाज़ परिंदों की भी एक हद में ही रह जाए ...



परवाज़ परिंदों की भी एक हद में ही रह जाए
  अगर आसमान भी परिंदों में आपस में बंट जाए !
क्यों सरहद बनी जो बांटती है दिलों और मुल्कों को
  काश !! हर इंसान भी सरहद छोड़ कर परिंदा हो जाए !!

.. विजय जयाड़ा 13.10.15


Monday, 12 October 2015

ख्वाइश


..... ख्वाइश ...

डाल से टूटा है तो
अब बिखर ही जाएगा !
बहा ले जिस तरफ पानी
बहता ही जाएगा !
शाख पर था
हवा में गीत गाता था
थके राही को चादर
छाँव की ओढाता था,
डाल से टूटा है अब
बिखरना नियति है उसकी
मगर बिखरने से पहले
सहारा बन पाए __
ख्वाइश अब भी है उसकी !!

विजय जयाड़ा 
12.10.15


Saturday, 10 October 2015

भावातिरेक


...... भावातिरेक .....

भावों के अतिरेक में अंतर्मन
जब शब्दों को टटोलता है,
शब्दों का कुनबा जाने क्यों
  कहीं अंतस में गुम जाता है !

तस्वीर सजीव हो उठती हैं
 पर्वत बाहें फैलाने लगते हैं,
घाटियाँ पसार गोद अपनी
स्नेह लुटाने को उमड़ती हैं. 


उलाहना दिया रास्तों ने तभी
  वादा कर क्यों तुम आये नहीं !
सूना दिन और रात गुजरती हैं
  बाट निहारते हम सोये नहीं !


.. विजय जयाड़ा 10.10.15


Tuesday, 6 October 2015

बेटी : “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ .लघु कथा


बेटी 

“ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “


          “ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “ 

       तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
        आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !! 

          हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
          इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती.         

        भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
            “ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !! 

            खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
          ” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
          सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.

        शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ बना रहना चाहती थी .
                                                      .. विजय जयाड़ा 

दरस


दरस !!

झील से
   नयन उसके ...
घनी घटायें
   केश हैं ..
चाल
उसकी
हिरनी सी
और
होष्ठ हैं
  गुलाब से ..
पुष्ट
   यौवन...
    गदराया हुआ ..
मस्त और
    मदमाता हुआ....
   दरस है !!
  देहयष्टि का,
   वासना से पूरित !!
या
  बोध है !! सौंदर्य का !!

विजय जयाड़ा

कर्मपथ


*कर्मपथ*

  करना !!
   करुण__
व्यथित गान !!
ये शोभित नही
   मानव तुझे....
मनुज है
निरा पत्थर
नही,
जो
     स्थिर धरा पर.. ..
  जाग !!
कर्मपथ
तुझको
पुकार रहा,
पुरुषार्थ
बदलने भाग्य
फिर
   आमंत्रित कर रहा...
   बिसर न !!
कर्म और
पुरुषार्थ से
बनता भाग्य है..
त्याग,
कुंठित
नैराश्य गान,
कर्मवीरों पर
   शोभित नहीं !!
बढ़ निरंतर
कर्मपथ पर,
   विजय ध्वजा फहरा ... 

विजय जयाड़ा 


समागम !!


समागम !!

कल्पना सागर में उतरता
   शून्य में कुछ टटोलते हुए ..
   झरोखे से झाँका !!
   सहसा !!
  चाँद को पूरे यौवन में..
   करीब पाया !! बहुत ही करीब !!!
   इतना करीब की छू सकूँ !!
बतिया सकूँ..
बोझिल ह्रदय में जैसे
   उमंगों का सैलाब उमड़ा !!
कल्पनाओं को. 
  मूर्त रूप मिला !!
मौन को ...
  अभिव्यक्ति मिली !!
    उम्मीदों को पंख लगे ...
   आसक्ति जगी !! 
   आलम्ब मिला !!!
सहसा हकीकत से
   साक्षात्कार हुआ !!
   आज तो पूर्णमासी है !!
   अंधेरों की कल्पना सताने लगी....
मन फिर से बोझिल
   समंदर में उतराने लगा !!
मंद-मंद
चांदनी बिखेरता चाँद भी
अमावस के
अंधियारों के आगोश में
   कहीं समा गया !!
   मगर !!
डूबते उतराते
अब चाह थी !!
हर्ष-विषाद से दूर
आसक्ति – अनासक्ति
      और .......
अंधेरो -उजालों के
समागम से मिलन की !!
वहीँ रम जाने की !!! 

विजय जयाड़ा 


स्पर्श



स्पर्श

   स्पर्श .......
आरोह और अवरोह का
  हर्ष और अवसाद का..
मिलन का और विछोह का
  अभ्युदय और अवसान का..
स्पर्श.....
स्फूर्ति का और श्रांति का
   संवेग और अवरोध का...
आह्लाद का प्रमाद का
लिप्त और निर्लिप्त का
स्पर्श.....
विश्वास का अविश्वास का
   तपन का और शीत का..
जन्म का और मृत्यु का
    युद्ध का और शांति का ...
स्पर्श ....
आवास का प्रवास का
अपनों का और परायों का
श्वास का और प्रश्वास का
  जीव का निर्जीव का..
स्पर्श...
आत्म और परमात्म का
स्थूल का और शून्य का
  साकार का निराकार का ..
  एक सफ़र___
    असत्य से परम सत्य का ....
      स्पर्श ...... जीवन संघर्ष का .....
 
विजय जयाड़ा


Monday, 5 October 2015

उत्साहित अडिग पथिक


उत्साहित अडिग पथिक 

लक्ष्य की चाह,
  असफलता की आह !!
उत्साह और श्रान्ति 
साथ लेकर, साध लक्ष्य
 ऊँचाइयों की चाह में,
अविराम निरंतर
  बढ़ता एक पथिक...
  थकता, ऊँचाइयों से हारता !!
तय ऊँचाइयों से निरंतर 
  ऊर्जा और उत्साह पाता एक पथिक...
दरकती एड़ियाँ, टपकता स्वेद 
कभी अलसाता... 
मंद बयार के आलिंगन से उत्साहित  
लक्ष्य सम्मोहन में बंधा 
   निरंतर बढ़ता एक पथिक.....
  लेकिन ये कैसी विडंबना  !
   घुमड़ती घटायें.. कड़कती बिजलियाँ !
   अँधियारा ही अंधियारा !! चौंध ही चौंध !
   दिखता न मार्ग न कोई सहारा !
दृश्यमान, सिर्फ और सिर्फ...
 उम्मीदों का दरकता पहाड़ !
आशाओं पर गिरती बिजलियाँ 
प्रारंभ किया .. जहाँ से सफ़र 
 वहीँ आ पहुंचता एक पथिक !
गिर-गिर कर उठना
 नियति है उसकी  !
नयी आस और अनुभवों से सज्जित
ऊंचाइयों को पाने की ललक 
फिर एक नए सफ़र की तैयारी में ..
    एक उत्साहित.... अडिग पथिक ....
^^ विजय जयाड़ा 
 

सरहद !


सरहद !

नफरतें फैलाती हैं
काँटों से क्यों बंधी है ये सरहद,
बंदूकों के साए में ही
क्यों पनपती हैं ये सरहद !!
क्यों दीखता नही,
दरिया का किनारा सा ये सरहद !!
संगम दो तहजीबों का
क्यों बन जाती नहीं ये सरहद !!
सन्नाटे परोसती हैं .....
अठखेलियाँ क्यों करती नही ये सरहद !!
गुलिस्तां-ए-अमन-ओ-चैन
क्यों खिलने देती नहीं ये सरहद !!

^^ विजय जयाड़ा


फलसफा-ए-ज़िन्दगी


फलसफा-ए-ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के हर ठिकाने पर
इक नया अहसास पाया,
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को तनहा पाया !!
कभी मुन्तजिर बैठे रहे
एक सुरमई शाम की चाह में,
कभी सहर औ रात ढले,
सजी महफ़िल में घिरा पाया !!
जिनको मिलने की चाहत में
कभी सजदों में सिर झुकाए हमने,
आज खुद की चौखट पर
झुकी नज़रों से उनको आता पाया !!
इमारतें कभी बुलंद थी जिनकी
उनको जमीं पर रेंगते पाया,
गिर-गिर के उठने वालों को
नया जहाँ बनाते पाया !!
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को भीड़ में तनहा पाया !!

^^ विजय जयाड़ा


सियासत !!


सियासत !!

बचना इन सय्यादों से
  फकीरों के लिबास में होते हैं !!
बचना इनकी फितरतों से
   रहमतों में भी चलाते तीर हैं !!

अमन के अलफ़ाज़ हैं
   इन्होंने उधार लिए हुए !!
असल होते हैं तब ये
   गोला-बारूद उगलते हैं !!

फरिश्तों के वेश में ही
ये अक्सर निकलते हैं,
बगिया का बन के माली
   खुद ही उजाड़ देते हैं !!

जख्म देते हैं फिर
जहरीला मलहम लगाते हैं !
इंसानियत से वास्ता नहीं
   लाशों पे सियासी फूल चढाते हैं !!!

^^ विजय जयाड़ा

बुढ़ापा



बुढ़ापा

 हरा दरख्त
परिंदों का था बसेरा,
सुख दुःख
हर मौसम में
सबका वहीँ रहता डेरा,
कोई किसी डाल पर
चोटी पर कोई इठलाता,
चह-चहाटों से सारा
चमन गूंजता ,
   बूढा हुआ दरख़्त !!
पत्तियों ने छोड़ा
    परिंदों ने भी छोड़ा !!!
दरख़्त वही
बगीचा भी वही,
जो था सहारा,
   वही बेगाना हुआ !!
सूनी हुई शाखें
जर्जर हुई काया,
खोया है खुद में
सिमटी टहनियां,
बूढ़ी लाचार निगाहों से
   बेबस सा ....
  खोजता है सहारा !!
 
^^ विजय जयाड़ा


जीवन सत्य


जीवन सत्य


 भोर की शीतल
निश्छल मंद बयार,
गुद-गुदाता
स्नेहिल भोला मंदार.
तपता मध्याह्न,
प्रखर मार्तण्ड,
अल्हड यौवन
श्रम जल रत
कांतिमय काया.
क्षितिज की ओर,
अग्रसर विहंगम
ढलती शाम !!
सिकुड़ती रश्मियाँ
कान्ति विहीन
अंधेरों को समर्पित
होती दिवाकर काया !!
अबोध बालपन,
उन्मत्त यौवन
समर्पण को अग्रसर
जर्जर होती मानव काया !!
 
 ^^ विजय जयाड़ा 

राह गुज़र आसां चुनी तो ..



राह गुज़र आसां चुनी तो
काफिला बढ़ता ही जाएगा.
मंजिलें हों काँटों भरी तो
काफिला बनता बिगड़ता जायेगा.
साथ दे मुश्किल डगर पर
सच्चा हमसफ़र वही कहलायेगा...

^^ विजय जयाड़ा

सावनी बचपन


_\सावनी बचपन/_

उमस भरा
बीता समय
बरसी घटा
घनघोर है
बीथियों से
निकल बचपन
मुदित और
मदमस्त है
मेघ घनघोर
नभ में छाये
रस सुधा
बरसा रहे__
अलसा था
जीवन__
उमस में
सब__
मन ही मन
हरषा रहे,
तरसा बहुत !
सावनी बचपन
अब के बरस
हरषाने को
क्यों न उमड़े !!
अल्हड़ बालपन
मनभावन पल
यादों में..
संजो लेने को__

^^ विजय जयाड़ा

सांझ



हमेशा संग अंधेरा नहीं लाती
उजाले भी संग लाती है सांझ,
परवाज से लौट आयेंगे परिंदे
ये भरोसा भी दिलाती है सांझ.

तप गया काफिला सफर में
छाँव चादर फैलाती है सांझ,
सुबह के बिछुड़े अब मिलेंगे
मन में आस जगाती है सांझ .

.. विजय जयाड़ा

         ग्वालियर भ्रमण से लौट कर आई बिटिया, दीपिका का छायांकन देख रहा था.ग्वालियर से 25 किमी. दूर चम्बल नदी पर बने टीकरी बाँध पर सूर्यास्त के समय, अपने जाल में मछलियाँ फंसने की आस भरी टकटकी लगाए मछुआरों की इस तस्वीर पर नजर रुकी.


Friday, 2 October 2015

पसीने के रंग लाने पर ..


              आज सुबह मित्र से "उठाईगीरों" द्वारा रचना के साथ मूल रचनाकार का नाम उद्धृत न कर या मूल रचनाकार का नाम ज्ञात न होने पर, रचनाकार को "अज्ञात" उद्धृत न करके, स्वयं दोनों हाथों से दाद बटोरने पर चर्चा हो रही थी. बस यूँ ही एक मनोभावों की ऊंची लहर उठी !! भाव लहर को शब्द रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है ..

पसीने के रंग लाने पर
फूल महकाते हैं चमन को,
तारीफ़ फूलों की होती है
  कौन पूछता है माली को !

उठाईगीर बहुत हैं और
सेंधमारी भी खूब है यहाँ,
गुमनामी में हैं कलमकार
   दाद बटोरते हैं दूसरे यहाँ !!

.. विजय जयाड़ा 02.10.15


Thursday, 1 October 2015

इंतज़ार !



इंतज़ार !

 दिनभर हाड तोड़
मेहनत के बाद यूँ आँख लगी
उसे पता ही न चला !
कब टूटे शीशे पर चिपके
अख़बार को उखाड़
बर्फीली हवाओं और
चांदनी के दूधिया उजाले ने
  कमरे पर कब्ज़ा जमा लिया !
   अनायास आँख खुली !!
दोनों मिलकर न जाने कब से
उसे जगाने की कोशिश में थे
निखरी चांदनी में
पेड़ों से उतर आये साए
अब वापसी पर थे
गुदगुदाती दूधिया चांदनी को
  निहारता वो सोचता रहा..
सौन्दर्य देख अभिभूत हो
  कोई काव्य लिख रहा होगा..
प्रेमालाप में रत होगा प्रेमी युगल
   कोई प्रेम गीत में होगा मगन ..
एकाएक तन्द्रा टूटी
   जैसे उसे कुछ याद आया !!
उखड़े अखबार को
झट से चिपका कर
  कम्बल सिर तक खींच सो गया !
अब न जबरदस्ती घुस आयी
चांदनी का दूधिया उजाला था
न ही बर्फीली हवाओं की चुभन
बस था तो केवल अँधेरा और
नयी सुबह का इंतज़ार
   सूरज के उजाले में भी ..
चांदनी के दूधिया गुदगुदाते
   सौंदर्य स्पर्श का इंतज़ार...
आखिर क्यों न हो उसे कल का इंतज़ार
  तभी वो गीत गुनगुना पायेगा !
    जब कल उसे काम मिल पायेगा !!!

..विजय जयाड़ा 

सिमटती काया


सिमटती काया

मुरझाती आँखों से
   सिकुड़ी बाँहों ..
लटकती खाल को
   अपलक निहारता ..
आज फिर उदास
  सोच में डूबा हुआ है !
बसंत फिर आया
  उस तक नहीं आया !
अब न बतियाती
पत्तियों की सरसराहट
न पक्षियों का कलरव
   वीराना सताता है उसे !!
तितलियों और भंवरों को
खुद पर मंडराते
   देखे भी मुद्दत हुई !!
शाखों पर लटककर
बच्चों का खुश होना
   बहुत गुदगुदाता था उसे !!
थके राहगीरों पर
स्नेह और छाँव के
ताने – बाने से बुनी
   चादर हौले से उढाना..
गुपचुप उनकी
हंसी-ठिठोली सुनना
   बहुत भाता था उसे !!
  हर तरफ बसंत !
  लेकिन वो अकेला ही है !
अतीत ही .. अक्सर
उस सिमटती काया से
  कुछ बतियाता है..
   यादों से गुदगुदाता है ..
फिर छोड़ जाता है..
   उदास ... अकेला ...
   बिलकुल .. अकेला !!

..विजय जयाड़ा 

सफ़र


सफ़र

 भोर की शीतल
निश्छल मंद बयार,
गुद-गुदाता
स्नेहिल भोला मंदार.
तपता मध्याह्न,
प्रखर उदंड मार्तण्ड,
अल्हड यौवन
श्रम जल रत
कांतिमय काया.
क्षितिज की ओर,
अग्रसर विहंगम
पसरती सांझ !
सिकुड़ती रश्मियाँ
कान्ति विहीन
अंधेरों को समर्पित
  दिवाकर काया !
अबोध बालपन,
उन्मत्त अल्हड़ यौवन
ढलता फिर यौवन !
भोर का रात्रि तक सफ़र
समर्पण को अग्रसर
एक अध्याय का सफ़र
काया का सफ़र
  जन्म से मृत्यु का सफ़र !

.. विजय जयाड़ा

परछाई



परछाई

  रिश्तों के बदलते मायनों,
बुत होती इंसानियत पर
अपनी ही परछाई से
झुंझलाहट में सवाल दर सवाल
किये जा रहा था
वो मेरे पीछे जा खड़ी हुई
  निरुत्तर सी !
पलट कर देखा
मेरी ओर बढ़ रही थी
   शायद जवाब देने !!
सूरज सिर के ऊपर कब चढ़ आया
  पता ही न चला !
   अचानक परछाई गायब हो गयी !!
एक शोर सुनाई दिया
परछाई अंतर्मन के
हर दरवाजे पर दस्तक देकर
मेरे सवालों का
   जवाब मांग रही थी !!
सूरज उतार पर था
जवाबों की पोटली खोले
परछाई अब सामने खड़ी थी,
हर सवाल का सुगढ़ जवाब
मुझे चौंधियाने लगा था
चौंध से दूर भागना चाहता था,
   मगर !!
अंतस को जगा
चौंध मद्धिम होने लगी
सांझ गहराने के साथ बढती परछाई
अँधेरे का पहरा होने तक
मेरे सुप्त अंतस को जगा
   मुझमे ही समाने लगी थी ...
सवालों का जवाब मिल चुका था
  सवाल भी खुद ही था और जवाब भी ! 

... विजय जयाड़ा