अनुभूति
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Monday, 27 August 2018
Sunday, 19 August 2018
गंगा
गंगा
युगों - युगों से बहती अविरल
तन मन कर देती है विह्वल
बढ़ता पथिक तब थम जाता है
दिखती है जब गंगा निर्मल ...
तन मन कर देती है विह्वल
बढ़ता पथिक तब थम जाता है
दिखती है जब गंगा निर्मल ...
दिवस निशा समय हो कोई
हरपल जीवन गीत सुनाती
ऋतु बेशक हो चाहे कोई
अपनी धुन में गाती जाती ...
हरपल जीवन गीत सुनाती
ऋतु बेशक हो चाहे कोई
अपनी धुन में गाती जाती ...
गोद में जड़ चेतन उसके
मुदित प्रफुल्लित शीतल शीतल
टकराती नित पाषाणों से
बहती फिर भी कल कल छल छल
मुदित प्रफुल्लित शीतल शीतल
टकराती नित पाषाणों से
बहती फिर भी कल कल छल छल
गति बाधाओं में भी निरंतर
भेद भाव न कोई कमतर
बलखाती बहती वो निश्छल
कल-कल छल-छल कल-कल छल-छल ...
... अनहद
भेद भाव न कोई कमतर
बलखाती बहती वो निश्छल
कल-कल छल-छल कल-कल छल-छल ...
... अनहद
खुशियाँ
खुशियाँ
अभावों में पलते
जूझते ही रहते हैं
टुकुर टुकुर बेबस
ताकते रहते हैं
जूझते ही रहते हैं
टुकुर टुकुर बेबस
ताकते रहते हैं
सपने अनेकों
उनकी भी आँखों में हैं
इच्छाएं दिलों में
उनकी भी पलती हैं
उनकी भी आँखों में हैं
इच्छाएं दिलों में
उनकी भी पलती हैं
मासूम इच्छाओं की
हम सब भी कद्र करें
उनके बेरंग जीवन में
हम मिल के रंग भरें
हम सब भी कद्र करें
उनके बेरंग जीवन में
हम मिल के रंग भरें
उपहारों खुशियों से
उनके जीवन में भर दें रस
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस ..
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस..
... अनहद
उनके जीवन में भर दें रस
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस ..
मिलकर मनाएं__
कुछ इस तरह से क्रिसमस..
... अनहद
हिमालय से उतरकर
हिमालय से उतरकर
हिमालय से उतरकर आया मैं
अथक निरंतर चलता मैं
लरजता मैं गरजता मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
अथक निरंतर चलता मैं
लरजता मैं गरजता मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
तट हैं निरंतर साथ मेरे
प्यासे आते पास मेरे
मैं पथिकों का सहारा हूँ
चिर पथ का अनथक पथिक हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं...
प्यासे आते पास मेरे
मैं पथिकों का सहारा हूँ
चिर पथ का अनथक पथिक हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं...
दिवस निशा नहीं थाह मुझे
न किसी से यहाँ मोह मुझे
इक दूजे में भेद न कर
सुख दुःख में सबके साथ हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं ...
न किसी से यहाँ मोह मुझे
इक दूजे में भेद न कर
सुख दुःख में सबके साथ हूँ मैं
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं ...
बाँध दिया बंधों में मुझको
नादानी पर इतराते हो
अल्हड बहना चाह मेरी
प्रकोप से फिर क्यों डरते हो
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं__
नादानी पर इतराते हो
अल्हड बहना चाह मेरी
प्रकोप से फिर क्यों डरते हो
हिमालय से उतरकर आया मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं__
लरजता मैं गरजता मैं
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
... अनहद
अविरल अविराम बहता हूँ मैं .....
... अनहद
अतीत का आँगन
अतीत का आँगन
अतीत
के आँगन में
अतीत का हिस्सा बन गए
वर्षों पर पड़ी
गर्द की चादर
उठाने में मशगूल था !
तभी !
यादों की गठरी लटकाये
उसी आँगन में
खुद के लिए
जगह की तलाश में
एक और वर्ष
करीब आकर खड़ा हो गया !
मैंने कौतुहलवश पूछा ..
फिर कब मिलोगे ?
मिलोगे भी या नहीं ?
कुछ गंभीर हुआ
फिर बोला..
जरूर मिलूँगा !
मगर तब___
जब यादों से मिलने
मुझ पर पड़ी
धूसर चादर को उठाने
फुरसत से___
तुम मेरे पास आओगे
यादों की गठरी संग
अतीत के इस आँगन में ही पाओगे ..
.. अनहद
अतीत का हिस्सा बन गए
वर्षों पर पड़ी
गर्द की चादर
उठाने में मशगूल था !
तभी !
यादों की गठरी लटकाये
उसी आँगन में
खुद के लिए
जगह की तलाश में
एक और वर्ष
करीब आकर खड़ा हो गया !
मैंने कौतुहलवश पूछा ..
फिर कब मिलोगे ?
मिलोगे भी या नहीं ?
कुछ गंभीर हुआ
फिर बोला..
जरूर मिलूँगा !
मगर तब___
जब यादों से मिलने
मुझ पर पड़ी
धूसर चादर को उठाने
फुरसत से___
तुम मेरे पास आओगे
यादों की गठरी संग
अतीत के इस आँगन में ही पाओगे ..
.. अनहद
भगीरथ
भगीरथ
खुद के लिए__
अपनों के लिए
कुछ कर गुजरने में
बीत जाती है जिंदगी
निन्यानबे के
फेरे में
खुद तक सिमट कर
रह जाती है जिंदगी..
खुद के लिए__
अपनों के लिए
कुछ कर गुजरने में
बीत जाती है जिंदगी
निन्यानबे के
फेरे में
खुद तक सिमट कर
रह जाती है जिंदगी..
क्या पाया !
क्या खोया !!
मैंने अच्छा किया
उसने बुरा किया
इकतरफा__
हिसाब के कागज पर
घिसटकर__
अंतिम पायदान तक
पंहुच जाती है जिंदगी..
क्या खोया !!
मैंने अच्छा किया
उसने बुरा किया
इकतरफा__
हिसाब के कागज पर
घिसटकर__
अंतिम पायदान तक
पंहुच जाती है जिंदगी..
विरले होते हैं
जो जीने के मायने
बदल देते हैं
जीवन की नई परिभाषाएं
गढ़ देते हैं..
जो जीने के मायने
बदल देते हैं
जीवन की नई परिभाषाएं
गढ़ देते हैं..
अपनों के लिए प्रायः
सभी जीते हैं
मगर कुछ भगीरथ !
खुद के लिए ___
अपनों के लिए ही नहीं जीते !!
अजनबियों का जीवन भी
आसान कर__
दिलों में अमर हो जाते हैं ...
... अनहद
अलकनंदा, भागीरथी संगम, गंगा नाम उद्गम तीर्थ, देवप्रयाग, उत्तराखंड
सभी जीते हैं
मगर कुछ भगीरथ !
खुद के लिए ___
अपनों के लिए ही नहीं जीते !!
अजनबियों का जीवन भी
आसान कर__
दिलों में अमर हो जाते हैं ...
... अनहद
अलकनंदा, भागीरथी संगम, गंगा नाम उद्गम तीर्थ, देवप्रयाग, उत्तराखंड
कुछ यूँ बोले अहसास..
कुछ यूँ बोले अहसास
मुझे काव्य और काव्य शिल्प का ज्ञान नहीं !! बस
यूँ ही जो मन में आता है काव्य मापनी से बेपरवाह उसको शब्दों में ढ़ालने का प्रयास
करता हूँ. आपका निरंतर उत्साहवर्धन मिलता रहता है तो लिखने की ऊर्जा मिलती रहती
है. आप सभी स्नेही गुणी साथियों का सदैव दिल की गहराइयों से शुक्रगुजार हूँ.
तहेदिल से शुक्र
गुजार हूँ, साधुवाद के
पात्र श्री Rajesh Kummar Sinha साहब का, जिनके अथक परिश्रम व लगन से अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली से प्रकशित साझा काव्य संकलन " कुछ
यूँ बोले अहसास " में 34 रचनाकारों की रचनाओं को स्थान मिला.
साथ ही आदरणीय डॉ. सुरेश सारस्वत जी का बहुत-बहुत
धन्यवाद जिनके विद्वत मार्गदर्शन के फलस्वरूप रचनाएँ पुस्तकीय स्वरुप ले सकीं और
रचनाकारों को एक पहचान मिल सकी.
साथियों. यह साझा करते हुए हर्ष अनुभूति हो रही
है कि " कुछ यूँ बोले अहसास " साझा काव्य संकलन में 34 रचनाकारों के
साथ मेरी भी पाँच रचनाओं को सम्मिलित किया गया है. इस सबका श्रेय आप सभी
स्नेही गुणी साथियों को देना चाहूँगा .
हम हो जाएं
हम हो जाएं
आओ ! ऐसे सफ़र पर जाएँ
जहाँ मैं और तू हम हों जाएँ
बाधा दीवारों की न वहां हो
अम्बर खुला खिली अवनी हो..
दूर क्षितिज जब देखे हमको
मन ही मन मुस्काए रिझाए
गिरि कानन आंगन मिल झूमें
सरगम चहुदिश बांह फैलाये ..
मन ही मन मुस्काए रिझाए
गिरि कानन आंगन मिल झूमें
सरगम चहुदिश बांह फैलाये ..
घटाटोप घन उमड़ घुमड़ कर
वन मयूर को उकसाए
उड़ता आँचल थाम पनिहारी
मंद मंद मुस्काए लजाए ..
वन मयूर को उकसाए
उड़ता आँचल थाम पनिहारी
मंद मंद मुस्काए लजाए ..
झर झर निर्झर कल कल नदियाँ
देख देख बलखाएँ इतराएँ
पक्षी चहकें मृग भरें कुलाचें
गुन गुन भँवरे गीत सुनाएँ ...
देख देख बलखाएँ इतराएँ
पक्षी चहकें मृग भरें कुलाचें
गुन गुन भँवरे गीत सुनाएँ ...
अपने पराये का भेद नहीं हो
मिल जुल कर वहां रैन बिताएँ
छैल छबीले इन्द्र धनुष तब
खुश हो झर झर सुमन बरसाएँ ...
मिल जुल कर वहां रैन बिताएँ
छैल छबीले इन्द्र धनुष तब
खुश हो झर झर सुमन बरसाएँ ...
आओ ! ऐसे सफर पर जाएं
जहाँ मैं और तुम हम हो जाएं ...
.... अनहद
.... अनहद
गौरव गाथा
गौरव गाथा
पाषाण किले के आंगन में
जब गीत संगीत लहराते हैं
बढ़ते डग तब अनायास !
बढ़ते बढ़ते थम जाते हैं.
जब गीत संगीत लहराते हैं
बढ़ते डग तब अनायास !
बढ़ते बढ़ते थम जाते हैं.
गीत संगीत तब भावमयी
कानों की प्यास बुझाता है
चहुंदिश उड़ता कोलाहल
सिमट कहीं छिप जाता है..
कानों की प्यास बुझाता है
चहुंदिश उड़ता कोलाहल
सिमट कहीं छिप जाता है..
तपती धूप में बहती धुन
शीतल बयार सी लगती है
गौरव से सीना तनता है
जब गौरव गाथा छिड़ती है..
शीतल बयार सी लगती है
गौरव से सीना तनता है
जब गौरव गाथा छिड़ती है..
वीर प्रसूता मारवाड़ !
सुन देख के मैं इतराता हूं
गौरव गाथा सुनते सुनते
उस काल में मैं रम जाता हूं
... अनहद
सुन देख के मैं इतराता हूं
गौरव गाथा सुनते सुनते
उस काल में मैं रम जाता हूं
... अनहद
बांस
बांस
नि:शक्त की लाठी
गरीब का छप्पर
हुकूमत का डंडा
मेहनतकश का टोकरा
ये बांस !
बांसुरी की तान
लट्ठमार होली की शान
अल्हड़ बेजुबान
कलमकार की कलम
विरह की जुबान
ये बांस !
काटो ! हरियाता
गरीब का सहारा
अंतिम साथी
श्मशान तक
साथ निभाता है
फिर क्यों तिरस्कृत...
फेंक दिया जाता है
मरघट में
अकेला बेसहारा !!
ये बांस !!
... अनहद
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