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Friday 18 December 2015

वर्चस्व



 वर्चस्व 

 विलग अस्तित्व की चाह में
ठन जाती है शाखों में
और हठ बदल जाती है
वर्चस्व की लड़ाई में
  किंकर्तव्यविमूढ़ मूल !
शाखों के जोर से
ढुलकता जूझता
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
साम्य बनाने में
   थक कर चूर और मायूस !!
मौन ओढ़ लेता है मूल
   और एक दिन__
भरभरा कर
  धरती पर गिर जाता है !
   सब उजड़ जाता है !!
मूल से विलग हो
  कौन स्थिर रह पाया है !
   कौन सुखी रह पाया है !!
   अब शाखें हैं मगर__
छिटकी सूखती कराहती हुई
दूर तक पसरा
   निश्चिंत मूल भी नहीं !!
   पसरा है .. तो सिर्फ__
   स्याह सन्नाटा लिए पछतावा !!
  विजय जयाड़ा 18.12.15


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