वर्चस्व
विलग अस्तित्व की चाह में
ठन जाती है शाखों में
और हठ बदल जाती है
वर्चस्व की लड़ाई में
किंकर्तव्यविमूढ़ मूल !
शाखों के जोर से
ढुलकता जूझता
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
साम्य बनाने में
थक कर चूर और मायूस !!
मौन ओढ़ लेता है मूल
और एक दिन__
भरभरा कर
धरती पर गिर जाता है !
सब उजड़ जाता है !!
मूल से विलग हो
कौन स्थिर रह पाया है !
कौन सुखी रह पाया है !!
अब शाखें हैं मगर__
छिटकी सूखती कराहती हुई
दूर तक पसरा
निश्चिंत मूल भी नहीं !!
पसरा है .. तो सिर्फ__
स्याह सन्नाटा लिए पछतावा !!
विजय जयाड़ा 18.12.15
ठन जाती है शाखों में
और हठ बदल जाती है
वर्चस्व की लड़ाई में
किंकर्तव्यविमूढ़ मूल !
शाखों के जोर से
ढुलकता जूझता
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
साम्य बनाने में
थक कर चूर और मायूस !!
मौन ओढ़ लेता है मूल
और एक दिन__
भरभरा कर
धरती पर गिर जाता है !
सब उजड़ जाता है !!
मूल से विलग हो
कौन स्थिर रह पाया है !
कौन सुखी रह पाया है !!
अब शाखें हैं मगर__
छिटकी सूखती कराहती हुई
दूर तक पसरा
निश्चिंत मूल भी नहीं !!
पसरा है .. तो सिर्फ__
स्याह सन्नाटा लिए पछतावा !!
विजय जयाड़ा 18.12.15
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