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Sunday 13 December 2015

खामोशी



खामोशी

परत दर परत
यादों को खुद में छिपाए
परतें उघडती हैं
धुंधलका छितराने लगता है
घने कुहरे को
सूरज का उजाला
निगलने लगता है
अब अतीत स्पष्ट
नज़र आने लगता है
खट्टी-मीठी यादें
जीवंत हो उठती हैं
गुदगुदाती हैं
जी भर हंसाती हैं
यादों का चलचित्र ज्यों-ज्यों
आगे बढ़ता जाता है
तेजी से कुछ
पीछे छूटता चला जाता है
परत दर परत
धुंध में फिर से
   छिपने लगता है !!
       तन्द्रा टूटती है ___
यादों के आगोश में समाते
आवरणित होते
अतीत को फिर पाने की
जीने की जिद में
मन मचलने लगता है
      लेकिन ____
   अतीत वापस नहीं आएगा !!
सोचकर !!
   मन मायूस हो खामोशी ओढ़ लेता है !!
विजय जयाड़ा 12.12.15


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