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Wednesday, 30 March 2016

आर्तता !!



आर्तता !!

सूरज की नियति है उदय होना !
दो दिन से उदय हुआ नहीं !
चेहरे पर निराशा गहराई !
लेकिन पेट की आग उसे
फिर चौक तक खींच लाई !
आशा से नजरें उठती
कामगीर तलाशने वाले पर
शोषण की ज्वालायें दिखती
उन तलाशती आँखों पर !
काम अधिक ! पर मोल नहीं !
कमजोर का चलता तौल नहीं !
ताप शीत का गिरता जाता
जठराग्नि ताप बढ़ता जाता !
पेट की ज्वालायें ही अक्सर
समर्पण को बाध्य करती अक्सर !
दो दिन से “सूरज” उगा नहीं !
कल का भी कुछ पता नहीं !
अनिश्चितता के भंवरों में
किंकर्तव्यविमूढ़ सी “ आर्तता “
“शोषण” की बलि चढ़ जाती “ आर्तता “ !!
... विजय जयाड़ा. 25.12.14
( आर्तता= परेशानी, दर्द, पीड़ा, कष्ट )


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