....रिश्तों की दूब....
रिश्ते !!जब दूर होते हैं
लुभाते हैं गुदगुदाते हैं
कल्पित सुखद अनुभूतियाँ
हिलौरे लेती हैं
सब्र तट तोड़ने का इरादा लिए
मिलने को उमड़ती है !
मगर रिश्ते जब करीब होते हैं !
अक्सर उपेक्षाओं की गर्द में
दबते ही चले जाते हैं
तिरस्कार के पत्थर
घायल कर देते हैं उन्हें !
हरियल ढूब घास की तरह !!
दूब नंगे पैरों के तलुओं को
मखमली सुकून देती है
देखभाल न हो, सूखकर
शूल सी चुभन देती है !!
दबती चली जाती है
उपेक्षाओं, तिरस्कार की
परतों के तले !!
रह जाती है धूल ही धूल
हलकी से हवा में उड़कर
आँखों में चुभ जाने के लिए
अस्तित्व समाप्त नहीं होता
जाल बुनकर जमीन में !
नर्म अहसास की उम्मीद में !
छिपकर, नज़रों से दूर हो जाती है
गलतियों के अहसास का पानी
सींचता है सूखी जड़ों को
लहलहा उठती है !
दबी कुचली कंटियल सी दूब !
निखर उठता है
हरियाला मखमली अहसास
लहलहा उठती है
रिश्तों की दूब !!
लुभाते हैं गुदगुदाते हैं
कल्पित सुखद अनुभूतियाँ
हिलौरे लेती हैं
सब्र तट तोड़ने का इरादा लिए
मिलने को उमड़ती है !
मगर रिश्ते जब करीब होते हैं !
अक्सर उपेक्षाओं की गर्द में
दबते ही चले जाते हैं
तिरस्कार के पत्थर
घायल कर देते हैं उन्हें !
हरियल ढूब घास की तरह !!
दूब नंगे पैरों के तलुओं को
मखमली सुकून देती है
देखभाल न हो, सूखकर
शूल सी चुभन देती है !!
दबती चली जाती है
उपेक्षाओं, तिरस्कार की
परतों के तले !!
रह जाती है धूल ही धूल
हलकी से हवा में उड़कर
आँखों में चुभ जाने के लिए
अस्तित्व समाप्त नहीं होता
जाल बुनकर जमीन में !
नर्म अहसास की उम्मीद में !
छिपकर, नज़रों से दूर हो जाती है
गलतियों के अहसास का पानी
सींचता है सूखी जड़ों को
लहलहा उठती है !
दबी कुचली कंटियल सी दूब !
निखर उठता है
हरियाला मखमली अहसास
लहलहा उठती है
रिश्तों की दूब !!
.. विजय जयाड़ा
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