ad.

Sunday, 20 September 2015

रेज़ा रेज़ा दरकते हैं रोज़ ...



रेज़ा रेज़ा दरकते हैं रोज़
उम्मीदों के पहाड़ अब यहाँ
चलो गठरी आस की लेकर
अब कहीं और चला जाए !
लफ्फाजी और भोंडेपन में
अल मस्त है सारा शहर तेरा,
अब लौटकर हकीकत की
   दुनिया में .... बसर की जाए !!

.. विजय जयाड़ा


No comments:

Post a Comment