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Wednesday, 30 September 2015

ज्वार !!


ज्वार !! 

 तटबंध लांघने को बेचैन
लहरों को खुद के
गर्भ में पल रहे सृजन,
विकसित होते जीवों की
दुहाई देकर खुद मैं
शांत समेटे रखता है सागर
  लहरें मन मसोस कर रह जाती हैं !
शांत सागर में समायी रहती हैं
पलता और खिलता है
सागर में समाया सृजन,
प्रमाद और तमस
हावी होता है लहरों पर
   उठती है गर्जन के साथ प्रचंड !!
तटबंधों को लांघ लहरें,
   कूद जाती हैं उस पार !!
सागर नि;शब्द लाचार !
   नादानी पर किंकर्तव्यविमूढ़ !!
समयांतराल पश्चात
तट प्रहार से टूटी बिखरी
लहरें लौट आती हैं !
सिर्फ पछतावा है उनके पास
प्रमाद में सागर में पलते
सृजन उठा ले गयी थी
तड़प रहा है सूखी रेत पर
   बिन पानी दम तोड़ देगा !!
अपने किये पर मुंह छिपाती
कहीं छिप गयी हैं सागर में
  अब गर्जन और प्रचंडता भी नहीं !
   शांत है सागर.... किन्तु !!
वेदनासिक्त नीरवता लिए !!
   शांत है नव सृजन की थाह में !!! 

.. विजय जयाड़ा 


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