ad.

Wednesday, 30 September 2015

पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”




पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”


हरयुं भरयुं मुल्क मेरु
    रौंत्याळु__
  कुमाऊँ-गढ़वाळ...
बानि-बानि का
 डाळा बुटळा,
  डांडी-कांठी...
  उंधारि उकाळ..
   “हरयुं सोनु”__
बांट्दा दिखेदंन
  झुमरयाला...
   बांज का बजांण....
    हरयुं भरयुं__
मुल्क मेरु
   रौंत्याळु__
       कुमाऊँ-गढ़वाल....... 
 
....विजय जयाड़ा 07.04.15
 
 

पतझड़ से पहले


पतझड़ से पहले 

 बयार बही
चहुदिश महकी
झूमी डाली
तरुवर झूमे,
  कलरव विहग..
कुहुकी कोयल
इठलाई कलियाँ
  फूल हँसे...

तरुपात रजतमय
हरे खिले
हर्षित मृग
  ऊँची उछाल भरे,
अम्बर नीला-नीला सा
  वसुधा नव श्रृंगार किये,
भौंरा गूंजे इधर-उधर
   ठहर सुमन किसी ..
  मकरंद पान करे..

विरहिणी मन
   फिर कई प्रश्न उठे !!
कई फाग टले
   कई बसंत ढ़ले !!
   लौटेंगे कब !!
  पिया परदेश गए..
यौवन ढल कर
   या ....
   पतझड़ से पहले !! 

.. विजय जयाड़ा 


ज्वार !!


ज्वार !! 

 तटबंध लांघने को बेचैन
लहरों को खुद के
गर्भ में पल रहे सृजन,
विकसित होते जीवों की
दुहाई देकर खुद मैं
शांत समेटे रखता है सागर
  लहरें मन मसोस कर रह जाती हैं !
शांत सागर में समायी रहती हैं
पलता और खिलता है
सागर में समाया सृजन,
प्रमाद और तमस
हावी होता है लहरों पर
   उठती है गर्जन के साथ प्रचंड !!
तटबंधों को लांघ लहरें,
   कूद जाती हैं उस पार !!
सागर नि;शब्द लाचार !
   नादानी पर किंकर्तव्यविमूढ़ !!
समयांतराल पश्चात
तट प्रहार से टूटी बिखरी
लहरें लौट आती हैं !
सिर्फ पछतावा है उनके पास
प्रमाद में सागर में पलते
सृजन उठा ले गयी थी
तड़प रहा है सूखी रेत पर
   बिन पानी दम तोड़ देगा !!
अपने किये पर मुंह छिपाती
कहीं छिप गयी हैं सागर में
  अब गर्जन और प्रचंडता भी नहीं !
   शांत है सागर.... किन्तु !!
वेदनासिक्त नीरवता लिए !!
   शांत है नव सृजन की थाह में !!! 

.. विजय जयाड़ा 


“ बुझदिली !! “


 बुझदिली !!

 कुदरत का कहर
   उसकी तकदीर में था गुंथा !!
बादलों से फिर बिजली गिरी
एक और सरसब्ज़ दरख़्त
  फिर धरती पर ढह गया !
  तफ्तीश और पूछताछ !
मौके मुआयना भी खूब हुआ
मगर नतीजे में बीमार
   बूढ़ा और सूखा ठहराया गया !!
खबर नवीसों को इल्म था
   दरख़्त के ढह जाने का !!
मगर !
   सियासती तकरीरों में मशगूल थे !!
    जिनमें उसको ....
   “बुझदिली” का तमगा पहनाया गया !!

.. विजय जयाड़ा 


खुद का अहसास


खुद का अहसास

घनघोर अंधेरा
पसरा देख
मन व्यथित कर
  घबरा जाते हैं !
नैराश्य भाव में
गल गल कर
अक्सर ..
  समर्पण कर जाते हैं !
शूरवीर
कब रुकते है!
अक्सर अंधियारों से
वे घिरते हैं !
अंधेरों पर विजयी
ध्वजा फहरा कर ही
  वे शूरवीर कहलाते हैं !
हवाओं से डर कर
दीपक की लौ
  समर्पण करती नहीं !
अंधेरी रातों में ही
प्रकाशित होकर जुगनु
   खुद का अहसास कराते हैं !!
 
... विजय जयाड़ा 




Monday, 28 September 2015

" फेसबुक्या उत्माळ !! "


                           प्रस्तुत रचना, मोबाइल या कैमरे की चौंधियाती " फ्लैश " से नवजात की नाजुक त्वचा व आँखों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव से बेपरवाह, नवजात शिशुओं की तस्वीरें, फेसबुक पर जन्म के तुरंत बाद " आशीर्वाद " हेतु पोस्ट करने, संस्कृति व माता-पिता की उपेक्षा और फेसबुक केन्द्रित व्यवहार पर, पूर्व क्षमा सहित, व्यंग्य है.

" फेसबुक्या उत्माळ !! "

अभि अभी जन्मि नौनु
आँखि टिमणाणि छन् ...
शहद चटौंण
भुलि ग्य्न बुबा जी !
फ्लैश चमकै चमकै,
फोटु कु सही
एंगल खुजौणा छन !

बुबा कु बमताल देखि,
पड़ोसि मुक लुकैकि
  खित् खित् हैंसणा छन् !
पर बुबा जि तैं
परवा नि कैकि !
फोटु खिंच्ण मा
  रंगमत बण्यां छन् !

बुड् बुड्या
  धोळ्यान् छन् गौं मा !
  सासु जि परवांण बणी छन् !
नौनि का उळार मा,
   जवैं कु सैडू ..
    घर बार संभाळनि छन् ...

नाति देख्णा खातिर
बुवे बुबा कि गौं मा
आंखि सुखणि छन् ...
दिल्ली मा ..
बुबा जि पर
          फेसबुक्या "उत्माळ" चढ्युं ____
   फेसबुक्या दग्डियों सि ..
   आशीर्वाद मांगणा छन !!

संस्कारों कि बात नि करा
   अब जमानु बदळ गि ..
पंडा जि संविदा
     डाळनों तैं बुलौणा___
यजमान हवन कु
   फेसबुक्या एंगल खुजौणा छन् !!

.. विजय जयाड़ा 


Sunday, 27 September 2015

उद्वेलन

 

 उद्वेलन

पाषाणों से
टकरा कर निर्झर
उद्वेलित हो गरजते हैं
सहेज पाते हैं
कब तक गर्जन...
फिर शांत बहने लगते हैं ..
उन्मादित उद्वेलन में
कर्कश शब्द सुर
उत्सर्जित होकर टकराते हैं..
भावनाओं के
नैसर्गिक उत्कर्ष में
शब्द शांत हो जाते हैं !
विन्यास विहीन होकर
तब वो
भावों की सरिता में
कहीं गुम हो जाते हैं 

.. विजय जयाड़ा

उदास बुढापा


_|| उदास बुढापा ||_

ज़िन्दगी की उलझने
सुकून देती हैं
जब उलझनों में उलझा
थका हारा इंसान
अपने बच्चों के पास
घर पहुँचता है..
उनको हँसता- खेलता
बड़ा होता देख ..
मन ही मन खुश होता है
जिंदगी की संकरी राहों से
गुज़रना सीखता है...
उम्र के आखिरी पड़ाव में
जब जिंदगी चिढाती है उसे
सहारा तलाशता है ...
अपनों को आस-पास
पाने की चाह में
बार-बार पुकारता है !
मगर अक्सर...
सूखते दरख़्त के घरोंदों से
दरख्त को अकेला छोड़
पंछी उड़ जाया करते हैं !!
प्रतिउत्तर न पाकर
बुढ़ापा भी खुद को
अकेला पाता है !!
घर, अब उसे मकान में
बदल गया महसूस होता है
हर ईंट उसे चिढ़ाती..
उलाहना देती सी लगती है !!
आँखों पर हथेलियां रख
मुंह चिढाती ईंटों से
खुद को छिपाता है !!
निराशा में गुमसुम बैठा ...
बुढ़ापा उदास हो जाता है !! 

.. विजय जयाड़ा 

जज़्बात



जज़्बात

कुछ जज़्बात
अजीब होते हैं !
पास हों तो
जाने कहाँ !!
छिप जाते हैं,
मगर....
किसी के दूर
जाने की
आहट पर...
नंगे पैर ही
दौड़े चले आते है !!
कुछ जज़्बात
अजीब होते हैं !!
... विजय जयाड़ा 20.05.15

 

...रिश्तों की दूब....


....रिश्तों की दूब....

रिश्ते !!जब दूर होते हैं
लुभाते हैं गुदगुदाते हैं
कल्पित सुखद अनुभूतियाँ
हिलौरे लेती हैं
सब्र तट तोड़ने का इरादा लिए
  मिलने को उमड़ती है !
मगर रिश्ते जब करीब होते हैं !
अक्सर उपेक्षाओं की गर्द में
दबते ही चले जाते हैं
तिरस्कार के पत्थर
  घायल कर देते हैं उन्हें !
   हरियल ढूब घास की तरह !!
दूब नंगे पैरों के तलुओं को
मखमली सुकून देती है
देखभाल न हो, सूखकर
   शूल सी चुभन देती है !!
दबती चली जाती है
उपेक्षाओं, तिरस्कार की
   परतों के तले !!
रह जाती है धूल ही धूल
हलकी से हवा में उड़कर
आँखों में चुभ जाने के लिए
अस्तित्व समाप्त नहीं होता
  जाल बुनकर जमीन में !
  नर्म अहसास की उम्मीद में !
छिपकर, नज़रों से दूर हो जाती है
गलतियों के अहसास का पानी
सींचता है सूखी जड़ों को
  लहलहा उठती है !
  दबी कुचली कंटियल सी दूब !
निखर उठता है
हरियाला मखमली अहसास
लहलहा उठती है
   रिश्तों की दूब !! 

.. विजय जयाड़ा

Saturday, 26 September 2015

दस्तूरों की खातिर ....



दस्तूरों की खातिर
मजहबों में क्यों
   बंट जाता है इन्सान !!
    बेवक्त मौत आके !!
 पूछती नहीं .... कि
कौन हिन्दू और
   कौन मुसलमान !!

.. विजय जयाड़ा 


जीवन संघर्ष


 

........जीवन संघर्ष .........

तोड़ धरती की कठोर परत
उत्साहित उमंगित नवांकुर,
सड़े सूखे पत्तों में दबा पाकर
  निराश हुआ, फिर आस जगी !
सूखे पत्तों को छत मान लिया,
डरता सहमा सा बढ़ा ऊपर
शूलों के झाड़ों से घिरा पाया!
कोमल अंगों को सहेजा बहुत
मगर काँटों को दया थी कहाँ!
छनी धूप पाने का रुख किया
  काँटों से बिधने का दुःख पाया !
जीवन संघर्षों से पार पाकर
नवांकुर, विटप बन बढ़ आया
कष्टों का अब अवसान हुआ,
फूल खिले और फल आये
देख, अपने भाग्य को कोस
कांटे किये पर पछताते रहे
माली काँटों को काट गया
कुछ नवांकुर और उग आये,
महका अब उपवन चहुदिश
   और जीवन सरगम साज बजा..

.... विजय जयाड़ा 


मन शब्दांचल


........मन शब्दांचल.......

मन शब्दांचल सघन शब्द वन
शब्द आपस में उलझे हुए,
अमर्यादित शब्दों में जोर अधिक
सौम्य शब्द दिखे कुम्हलाते हुए,
अस्तित्व बचाने की खातिर
कुछ कंदराओं में जा छिपे,
कुछ हाँफते हुए दूर दिखे
जल की आस में तड़प रहे,
कुछ लटके तरु शाखों पर
शाखोों में जीवन तलाश रहे,
प्रदूषित मन सघन शब्द वन
सौम्य शब्द भटकते इधर-उधर
व्याकुल से अस्तित्व तलाश रहे !!
 
..विजय जयाड़ा 30/10/14


..अभिलाषा..


..अभिलाषा..

हे दयानिधे!
भावों में आ..
छल कपट से दूर
निरंतर कर्मों में....
कर्मपथ में आ.
हे करूणानिधि !
मिथ्या है जगत
ये सत्य है ...
मगर कण-कण में बसा
नियंता तू एक है
कर्म पथ से विचलन
मन चंचल
जब हो मेरा,
कर तिमिर अवसान..
गुरु बन मार्ग प्रशस्त कर .
हे भक्तवत्सल !!
भाव पूजा ही
समर्पण है चरणों में तेरे
भावरहित समर्पण
व्यवहार में नहीं मेरे,
कर विरक्त
मिथ्या आलंबनों से,
आडम्बरों से मोह भंग कर,
हे भक्तवत्सल !!
आलोकित कर ह्रदय....
ज्ञान-दीपक जला..
ह्रदय दीप जला !! 

.. विजय जयाड़ा

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे ..




 
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
   कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-ए बयाँ और ..


..... उन्वान ...


.......... उन्वान ........

अंतस कुछ सुनसान सा था
शब्दों की गागर रीती थी
काँधे पर रख गागर
शब्दों के निर्झर पहुँच गया
निर्झर सूखा देख बहुत
असमंजस मन उदास हुआ
उद्विग्न देखता इधर-उधर
व्याकुल कारण तलाश रहा
ममनोदशा पर मेरी
बालक एक खिलखिला उठा
अलसाया अंतस मचल उठा
सूखा निर्झर भी बहने लगा
एक बयार बही पक्षी चहके
कविता को सरगम साज मिला
रीती गागर अब छलक गयी
गागर ले अब मैं लौट चला
कविता को उन्वान मिला.

..विजय जयाड़ा 

Wednesday, 23 September 2015

" अल्मोड़ा " ; एक उपयोगी घास

 

" अल्मोड़ा " ; एक उपयोगी घास


... खुदेंदु अल्मोड़ा ...
जिला कु नो नि सम्झ्याँ
घास कु नो अल्मोड़ा छ
पाखों बिट्टो मिळ्दु खूब
   स्वाद माँ खट्टू हौंदु छ..

चटणी खूब स्वाद बणदि
विटामिन “सी” भरपूर छ
आयरन भी खूब मिळ्दु
    ये सि बचपना कि प्रीत छ...

रूडियों मा गदगदा पत्तों की
चटणी कु अलग आनंद छ
ह्युंद किड्या सि हवे जांदु
    पाखा बिटटों लाल रंगणुं छ...

नौना बोळ्युं नि माणदा
कंडाळी पुराणु इलाज छ
कंडाळी का झमणाट कु
     अल्मोड़ा पेटेंट इलाज छ....

कंडाळी का साग तैं
अल्मोड़ा सुस्वादु बणोंदु छ
नया ज़माना माँ बैठक कि
    अल्मोड़ा शान अब बढोणु छ ...

उत्तराखंडी अब परदेशी ह्वेन
नौना बाळा कम ही जांणदन
पाखा बिटटो खड़युँ अल्मोड़ा
   सुनसान बाटों देखि खुदेणु छ !!

..विजय जयाड़ा 21.04.15
 

Sunday, 20 September 2015

स्नेह संवाद ......

 

.....स्नेह संवाद ......

धरती को जब छूता सूरज !!
तपती प्यासी धरती क्या करे !! .....
व्याकुल होते मूक जीवों का
धरती पर कौन ध्यान धरे !! .....
अपनी प्यास बुझाता मानव
जीवों का कौन थ्यान करे !! ......
मानव प्यास बुझाते ठंडे प्याऊं...
मीठा शरबत मानव में ही बंटे !!....
घर के बाग़-बगीचे सींचे हमने
गमलों का भी ध्यान धरा ...
हो गयी छुट्टी ! बंद हुए स्कूल !!
इन पौधों का कौन ध्यान करे ! .....
ठंडी हवा कूलर में बैठा
मन में एक भूचाल उठा .....
दौड़ पड़ा सुध लेने इनकी
व्याकुल कुम्हलाये उदास मिले !!
डाली और आंगन बैठे कागा भी ...
व्याकुल प्यासे निराश मिले !!....
रोटी के टुकड़े बिखराए
मिटटी कटोरा पानी भर रख कर
कागा टोली को शांत किया ..
घूँट-घूँट पानी पिलाकर
कुम्हलाये रूठे पौधों और ...
जीवों से सहज स्नेह संवाद किया.. 

.. विजय जयाड़ा


जी .. हुजूरी !!


जी .. हुजूरी !!

हम भी कभी थे
दुनिया के राजा..
चाँद सितारों पर भी
बजता था..
अपना ही बाजा..
बात मनवाना,
काम था अपना..
बड़े-बड़ों को
जिद्द पर झुकाना..
गलती अपनी,
दूसरे को उलाहना !
कल्पना में
 कहीं भी उड़ जाना !!
दोस्त बहुत थे
पक्के –पक्के
नाम अभी तक
याद हैं उनके..
लुक्कम छुप्पम
सांझ घनेरे
झगड़े बिना खेल
लगते थे अधूरे...
कंपाती सर्दी या
भीषण गर्मी,
मस्ती – मस्ती 
हरदम - हरदम,
 बारिश की..
परवाह नहीं थी,
बस्ता लटकाए
   छ्प्तम - छप्तम..
डाल पर चढ़
खूब इतराना,
 दोस्तों को.. 
  हर वक्त चिढाना !
अब सब हुआ
  गुजरा जमाना !!
रूठा बचपन
  बंद खिलखिलाना !!
दुनिया सिमटी,
 छिना राज पुराना !
मौज मस्ती का
 बीता जमाना !
दोस्तों की नहीं
अब अल्हड़ टोरी,
खेल है.. अब
  बस ..जी हुजूरी !!
खेल है.. अब
   बस...जी हुजूरी !!!

..विजय जयाड़ा 
 

रेज़ा रेज़ा दरकते हैं रोज़ ...



रेज़ा रेज़ा दरकते हैं रोज़
उम्मीदों के पहाड़ अब यहाँ
चलो गठरी आस की लेकर
अब कहीं और चला जाए !
लफ्फाजी और भोंडेपन में
अल मस्त है सारा शहर तेरा,
अब लौटकर हकीकत की
   दुनिया में .... बसर की जाए !!

.. विजय जयाड़ा


Friday, 18 September 2015

ऋषि बन कर समाधि लगाये ...


ऋषि बन कर समाधि लगाये,
  हिमालय ! तू आँखें मूंदे मौन है !!
  दुश्मन के हौसले बुलंद न फिर हों,
     मौन तोड़ने का आया फिर वक्त है !!


... विजय जयाड़ा


विडंबना !!



            ऋषिकेश से देहरादून जाते समय एक तरफ पकी हुई फसल को काटते किसान को देखा !!
     वहीँ आसमान में घुमड़ते बादलों का कारवां !! इस विचित्र स्थिति का शब्द चित्र उकेरने का प्रयास !!

   विडंबना !!

उमड़ते घुमड़ते मेघ
आच्छादित व्योम !
कहीं आह्लादित मन !
कहीं मुरझाता चितवन !
उपजता नैराश्य भाव
मन:स्थिति भोग की !
या कहूँ !!
धरती पुत्र की अंतर्वेदना !
या कहूँ, विडंबना !!

^^  विजय जयाड़ा/22.04.14

हरीतिमा खुशहाली ओढ़े ...



हरीतिमा खुशहाली ओढ़े 
ऊपर गगन विशाल हो
फूलों सा हँसता हो जीवन
गहन और विस्तीर्ण हो 
  
.. विजय जयाड़ा

 

Wednesday, 16 September 2015

मनोभाव ...




  मनोभाव
 
कुछ पाने की हवस में
खुद को भूल जाता है आदमी,
रह जाता है यहीं सब
साथ क्या ले जाता है आदमी !!

~ विजय जयाड़ा
 
 

बेमौसम " बुराँश " और " फ्यूंलि " !!



 

बेमौसम " बुराँश " और " फ्यूंलि " !!

बुरांश मंगसीर खिळि
खित्त हैंसी !!
फिंयुली पूस खिख्तै
खिल्ल खिल्ल !!
यूँ मासु बुरांश फ्यूंळि
फुळ्युं देख,
डाळा खौळ्यां देखदा रैन्
टुकुर टुकुर !!
पहाड़ खोदी खोदी
होटल बण ग्येन् !!
रोज रड़दन् पहाड़
अब घमा घम !!
फुळ खिळ्ना कु मौसम
अब भुळ ग्यन्
डाळियों बगैर रड़दा डांडा
दिखेंद्न सुन्न सुन्न !!

... विजय जयाड़ा


Saturday, 12 September 2015

खुद को बुरा कोई कहता नहीं,



खुद को बुरा कोई कहता नहीं,
दूसरों में खोट हर कोई खोजता यहाँ !
ढूंढने लगो जो खोट खुद में अगर,
    कोई खुद से बुरा नहीं दिखता यहाँ !! 
 विजय जयाड़ा
 
 
 
 

मिजाज-ए-तल्ख़ को ...



मिजाज-ए-तल्ख़ को
अंदाज़-ए-खुशनुमा दीजे
कि पुराने ज़ख्म को
    शोलों की मत हवा दीजे.....
खुश्क हुई जमीं अब बहुत
जज्बातों की बारिश के बिना
जज्बातों की नमीं से
   जमीं को अब सर सब्ज कीजे....
कर न पाए कोई बाहरी,
ईमारत बुलंद अब कभी यहाँ
कि जज़्ब-ए-दिल को
    सदा प्यार कि हवा दीजे ....

.. विजय जयाड़ा


मंजिल करीब आती हैं ...


मंजिल करीब आती हैं
कठिन राहों पर चलने के बाद
हासिल होता है कोई मुकाम
इम्तिहानों से गुज़र जाने के बाद..
 
... विजय जयाड़ा
 
 

Thursday, 10 September 2015

दास्ताँ


दास्ताँ

मंद मंद पवन बहती
    
स्नेहिल सा ....
कुछ गाता है ये ,
सुकुमार नव पुष्प
दिखलाने की जिद में 

    झूमता ...
   भीतर चला आता है ये !!
बतकही के मोह में
पास खींचा
   चला जाता हूँ ...
   जन्म से..
पुष्पित होने की
   दास्ताँ सुनकर ..
    कुछ पल को ...
   इसमें ही रम जाता हूँ ..


.. विजय जयाड़ा


Saturday, 5 September 2015

हम सबकी दिल्ली


 हम सबकी दिल्ली

 
यौवन पर चढ़ती
  उजड़ जाती दिल्ली !
  सल्तनत बदलती !
     निखर जाती दिल्ली....

गरजती कभी खामोश
  रहती थी दिल्ली !
शंहशाही इशारे पर
    थिरकती थी दिल्ली...

अब शंहशाह रहे न
  सल्तनत ही बाकी !
   अब दिखती यहाँ..
     सिर्फ रवानी जवानी....

दिल हिन्दुस्तां का
धड़कता यहाँ है
रौनक से लवलेज़
    हर रोज़ खिलती....

कुछ खास दुनिया से
   सबसे निराली !!
   सरसब्ज सतरंगी..
      हम सबकी दिल्ली ...

   ..विजय जयाड़ा 
 

Friday, 4 September 2015

दरस ..






शिक्षक दिवस पर हार्दिक बधाइयां व शुभ कामनाओं सहित ..



....... || दरस || .......

हक़ सबने जतलाया मगर
वो हमेशा ही खामोश थे !
मांस पिंड सुगढ़ करने में
    हमेशा ही बहुत व्यस्त थे ...
 
माता - पिता उनमे दिखे
सखा भी उनमे ही मिला
ज्ञान रस जी भर पिलाया
    नि:स्वार्थ प्रतिमूर्ति वो बने ...

अहर्निश चरण वंदन उनका
दिन उन्हें आज अर्पित किया
   रूप अनेकों हैं उनके, मगर..
    दरस सबका “गुरु“ में किया...
 
..विजय जयाड़ा 

Wednesday, 2 September 2015

सार्थक संवाद !!


|| सार्थक संवाद ||

व्यर्थ नहीं जाते
    कुछ संवाद ...
दीवारों से टकराकर
घायल लौट आते हैं
कुछ समा जाते हैं
धरती के गर्भ में,
अनसुने संवाद
तलाशते हैं ठौर
अनंत आकाश में,
  अनुकूल समय इंतजार में !!
वापसी की आस में,
करवट लेता है समय
लुके छिपे संवादो को
स्वीकारते हैं हम,
लौट आते हैं फिर वही
घायल, अनसुने
  धरती में समाए संवाद !!
पुनर्जन्म लेते हैं
वही सुप्त पड़े संवाद,
फिर होता है
नए युग का सूत्रपात,
क्योंकि !!
  व्यर्थ नहीं जाते कुछ संवाद ..
युग प्रवर्तक होते हैं
अनसुने, घायल
     धरती मे समाये....
   कुछ सार्थक संवाद !!

.. विजय जयाड़ा