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Sunday 27 September 2015

उद्वेलन

 

 उद्वेलन

पाषाणों से
टकरा कर निर्झर
उद्वेलित हो गरजते हैं
सहेज पाते हैं
कब तक गर्जन...
फिर शांत बहने लगते हैं ..
उन्मादित उद्वेलन में
कर्कश शब्द सुर
उत्सर्जित होकर टकराते हैं..
भावनाओं के
नैसर्गिक उत्कर्ष में
शब्द शांत हो जाते हैं !
विन्यास विहीन होकर
तब वो
भावों की सरिता में
कहीं गुम हो जाते हैं 

.. विजय जयाड़ा

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