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Sunday 27 September 2015

उदास बुढापा


_|| उदास बुढापा ||_

ज़िन्दगी की उलझने
सुकून देती हैं
जब उलझनों में उलझा
थका हारा इंसान
अपने बच्चों के पास
घर पहुँचता है..
उनको हँसता- खेलता
बड़ा होता देख ..
मन ही मन खुश होता है
जिंदगी की संकरी राहों से
गुज़रना सीखता है...
उम्र के आखिरी पड़ाव में
जब जिंदगी चिढाती है उसे
सहारा तलाशता है ...
अपनों को आस-पास
पाने की चाह में
बार-बार पुकारता है !
मगर अक्सर...
सूखते दरख़्त के घरोंदों से
दरख्त को अकेला छोड़
पंछी उड़ जाया करते हैं !!
प्रतिउत्तर न पाकर
बुढ़ापा भी खुद को
अकेला पाता है !!
घर, अब उसे मकान में
बदल गया महसूस होता है
हर ईंट उसे चिढ़ाती..
उलाहना देती सी लगती है !!
आँखों पर हथेलियां रख
मुंह चिढाती ईंटों से
खुद को छिपाता है !!
निराशा में गुमसुम बैठा ...
बुढ़ापा उदास हो जाता है !! 

.. विजय जयाड़ा 

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