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Thursday 29 October 2015

अमर बेल



अमर बेल

कुछ जड़ हीन बेलें
वृक्ष पर आश्रय पाती हैं
आश्रय दाता का
जीवन रस पीकर__
ऊंचा उठकर
उसको ही झुकाना चाहती है,
खुद के विस्तार की चाहत में
उपकार भुला देती है !
खुद हरियल होने की जिद में
आश्रय दाता को
निष्प्राण कर सुखा देती हैं !!
बहुत हैं ऐसी बेलें
जो समाज पर पनपती हैं
उस पर छा जाती हैं
ऊँची उठती हैं
वर्चस्व की चेष्टा में
उसी समाज को निगल चाहती हैं__
जिसने उसे आश्रय दिया
पोषित किया !!
जिसका जीवन रस पीकर
उसने जीवन जिया !!
शायद, यही आसान तरीका है !!
खुद को स्थापित करने का
“ अमर बेल “ बनकर
जीते जी ! अमर हो जाने का !!

.. विजय जयाड़ा 29.10.15


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