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Thursday 1 October 2015

सफ़र


सफ़र

 भोर की शीतल
निश्छल मंद बयार,
गुद-गुदाता
स्नेहिल भोला मंदार.
तपता मध्याह्न,
प्रखर उदंड मार्तण्ड,
अल्हड यौवन
श्रम जल रत
कांतिमय काया.
क्षितिज की ओर,
अग्रसर विहंगम
पसरती सांझ !
सिकुड़ती रश्मियाँ
कान्ति विहीन
अंधेरों को समर्पित
  दिवाकर काया !
अबोध बालपन,
उन्मत्त अल्हड़ यौवन
ढलता फिर यौवन !
भोर का रात्रि तक सफ़र
समर्पण को अग्रसर
एक अध्याय का सफ़र
काया का सफ़र
  जन्म से मृत्यु का सफ़र !

.. विजय जयाड़ा

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