फलसफा-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी के हर ठिकाने पर
इक नया अहसास पाया,
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को तनहा पाया !!
कभी मुन्तजिर बैठे रहे
एक सुरमई शाम की चाह में,
कभी सहर औ रात ढले,
सजी महफ़िल में घिरा पाया !!
जिनको मिलने की चाहत में
कभी सजदों में सिर झुकाए हमने,
आज खुद की चौखट पर
झुकी नज़रों से उनको आता पाया !!
इमारतें कभी बुलंद थी जिनकी
उनको जमीं पर रेंगते पाया,
गिर-गिर के उठने वालों को
नया जहाँ बनाते पाया !!
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को भीड़ में तनहा पाया !!
इक नया अहसास पाया,
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को तनहा पाया !!
कभी मुन्तजिर बैठे रहे
एक सुरमई शाम की चाह में,
कभी सहर औ रात ढले,
सजी महफ़िल में घिरा पाया !!
जिनको मिलने की चाहत में
कभी सजदों में सिर झुकाए हमने,
आज खुद की चौखट पर
झुकी नज़रों से उनको आता पाया !!
इमारतें कभी बुलंद थी जिनकी
उनको जमीं पर रेंगते पाया,
गिर-गिर के उठने वालों को
नया जहाँ बनाते पाया !!
दुनिया को कभी खुद में
कभी खुद को भीड़ में तनहा पाया !!
^^ विजय जयाड़ा
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