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Monday 5 October 2015

जीवन सत्य


जीवन सत्य


 भोर की शीतल
निश्छल मंद बयार,
गुद-गुदाता
स्नेहिल भोला मंदार.
तपता मध्याह्न,
प्रखर मार्तण्ड,
अल्हड यौवन
श्रम जल रत
कांतिमय काया.
क्षितिज की ओर,
अग्रसर विहंगम
ढलती शाम !!
सिकुड़ती रश्मियाँ
कान्ति विहीन
अंधेरों को समर्पित
होती दिवाकर काया !!
अबोध बालपन,
उन्मत्त यौवन
समर्पण को अग्रसर
जर्जर होती मानव काया !!
 
 ^^ विजय जयाड़ा 

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