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Wednesday 30 March 2016

अभिलाषा



अभिलाषा

मन में उठते भाव प्रवाह को
शब्दों में बांधना चाहता हूँ,
शब्दों को माला में पिरोकर
मातृभूमि वंदन करना चाहता हूँ ...
चाह नही मंचों की शोभा बन
नेताओं का महिमा मंडन गान करूँ
उत्पीड़ित समाज की कीमत पर
अभिनन्दन का पात्र बनू..
चाह नहीं विरह विछोह को रचकर
कुंठित मैं माहौल करूँ..
वैभव के गीत सुनाकर
कुंठित दलित नि:शक्त जनों में
नैराश्य भाव संचार करूँ...
चाह नहीं शब्दों का जादूगर बन
मानव भावों का दोहन कर
पुष्प मालाओं से लादा जाऊं ....
उत्कंठाओं और अभिलाषाओं को
शब्दों का जामा पहनाकर
जन-जन को सुर देना चाहता हूँ ...
स्वार्थ और अनुरक्ति से दूर,
शब्दसागर तट पर मोती चुनकर
शब्द माला गूंथना चाहता हूँ....
मातृभूमि की सेवा में अर्पण कर
अभिनन्दन करना चाहता हूँ ....
माँ शारदे तेरे चरणों में रहकर
राष्ट्र वंदन करना चाहता हूँ...
अभिनंदन करना चाहता हूँ....
^^ विजय जयाड़ा 03.06.14

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