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Thursday 28 January 2016

ठहर रे मन



ठहर रे मन 

ठहर ! रे मन बैठ
मन भर__
बतिया लूँ यहाँ
बहुत दिन हुए
बिछोह के
जीवन से मिल लूँ
कुछ पल अब यहाँ..
 
चलते फिरते हैं बुत
महानगरों के
सड़कों चौराहों पर,
दूभर हुआ
आदम से मिलना
घर में और चौबारों पर ..
बदला मनुज !!
मगर__
नहीं बदली प्रकृति
वो है यहाँ
ठहर ! रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ मैं अब यहाँ ....

मूक हैं तरु झाड़ घास
फिर भी
सरगम बहता यहाँ !
बोल हैं शहरों में बेशक
मगर___
उठती कर्कश ध्वनियाँ वहाँ !
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ में अब यहाँ ...

हैं पाषाण वो
प्रीत उनमें है यहाँ
ईंटों के जंगल में है बसर
मगर___
सुकून ऐसा कहाँ !
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ जीवन से यहाँ ...

भटकता फिर रहा
तू कहाँ कहाँ
बिछड़ा था जीवन
वो है यहाँ
ठहर रे मन बैठ
कुछ पल
बतिया लूँ उससे यहाँ ..
 
.. विजय जयाड़ा 28.01.16

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