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Friday 22 January 2016

मूढ़ मन




मूढ़ मन

सदियों से अविरल सघन
अपनी धुन में सदा मृदुल मगन
जड़ चेतन सबका का प्राण वो
   बुझाती विचलित मन की अगन ...
 
निरंतर बह रही प्रवाहमयी
नहीं उसके मन में भेद कोई
वात्सल्यमयी हर बूँद उसकी
   पराया उसके लिए नहीं है कोई ..

घाट निषेध न उसने किया
पास आकर न प्यासा कोई रहा
सत्य बिखरा माँ गंगे ! तट तेरे
  मन मूढ मेरे ! क्यों भटकता रहा !
.. विजय जयाड़ा

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