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Monday, 28 December 2015

जटा-जूट तपस्वी




... जटा-जूट तपस्वी ...

सकल वसुधा का ताज हिमालय
अडिग युगों से डटा हुआ,
युगों-युगों से तपस्या लीन जटा-जूट
  अविचलित देखो मौन खड़ा..
 
बादल विपत्ति के बहुत से आये
टकराकर यहाँ सब चूर हुए
सरहद का सदा चौकस प्रहरी
   आँधियों में भी अटल खड़ा ...

छू लो तुम आकाश को लेकिन
अपनी लघुता का ध्यान धरो
अडिग रहो विपदाओं में कहता
    तपस्वी तूफानों में भी खड़ा...

... विजय जयाड़ा / तस्वीर: पुत्री दीपिका जयाड़ा
.. गन हिल मसूरी से हिमालय का एक दृश्य

Monday, 21 December 2015

तरक्की के दौर में जमाना बदल गया ..





तरक्की के दौर में जमाना बदल गया
कायनात वही है सिर्फ इंसान बदल गया !
महफूज़ रखो खुद को कि ज़माना ख़राब है
अब इंसान ही इंसानी ख़ूँ का प्यासा हो गया !!

  विजय जयाड़ा /तस्वीर : पुत्री दीपिका जयाड़ा द्वारा


Saturday, 19 December 2015

मायूस कर के खुश न हो मौला ! ...






मायूस कर के खुश न हो मौला !
घने अंधेरों में ही जुग्नुओं को निकलते देखा है,
तीरगी रही न यहाँ सदा के लिए
सहर के आने पर अंधेरों को दूर जाते देखा है !!
.... विजय जयाड़ा


Friday, 18 December 2015

वर्चस्व



 वर्चस्व 

 विलग अस्तित्व की चाह में
ठन जाती है शाखों में
और हठ बदल जाती है
वर्चस्व की लड़ाई में
  किंकर्तव्यविमूढ़ मूल !
शाखों के जोर से
ढुलकता जूझता
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
साम्य बनाने में
   थक कर चूर और मायूस !!
मौन ओढ़ लेता है मूल
   और एक दिन__
भरभरा कर
  धरती पर गिर जाता है !
   सब उजड़ जाता है !!
मूल से विलग हो
  कौन स्थिर रह पाया है !
   कौन सुखी रह पाया है !!
   अब शाखें हैं मगर__
छिटकी सूखती कराहती हुई
दूर तक पसरा
   निश्चिंत मूल भी नहीं !!
   पसरा है .. तो सिर्फ__
   स्याह सन्नाटा लिए पछतावा !!
  विजय जयाड़ा 18.12.15


Sunday, 13 December 2015

खामोशी



खामोशी

परत दर परत
यादों को खुद में छिपाए
परतें उघडती हैं
धुंधलका छितराने लगता है
घने कुहरे को
सूरज का उजाला
निगलने लगता है
अब अतीत स्पष्ट
नज़र आने लगता है
खट्टी-मीठी यादें
जीवंत हो उठती हैं
गुदगुदाती हैं
जी भर हंसाती हैं
यादों का चलचित्र ज्यों-ज्यों
आगे बढ़ता जाता है
तेजी से कुछ
पीछे छूटता चला जाता है
परत दर परत
धुंध में फिर से
   छिपने लगता है !!
       तन्द्रा टूटती है ___
यादों के आगोश में समाते
आवरणित होते
अतीत को फिर पाने की
जीने की जिद में
मन मचलने लगता है
      लेकिन ____
   अतीत वापस नहीं आएगा !!
सोचकर !!
   मन मायूस हो खामोशी ओढ़ लेता है !!
विजय जयाड़ा 12.12.15


Wednesday, 9 December 2015

रहगुज़र मुश्किल चुनी तो ...




रहगुज़र मुश्किल चुनी तो
  बैर ठोकरों से भला कैसा !
चाह
अगर फूलों की है तो
  निबाह काँटों से जरूरी है .
 विजय जयाड़ा


    

Tuesday, 8 December 2015

निरंतरता



 

“ निरंतरता “

शीत का
पहरा पड़ा
उष्णता कहीं
बलखा रही,
तिमिर कहीं
घनघोर छाया
कहीं उजास
इठला रहा,
शीत से गुजरता
निरन्तर पथिक
उष्णता की चाह में
   अविराम ...
आगे बढ़ रहा,
तिमिर घनघोर
कठिन पथ से गुजर,
उष्ण उजालों को पाकर
   विजित मन...
उत्साहित बदन
   प्रफुल्लित, हरषा रहा ....

..विजय जयाड़ा 20.01.15

नमन



नमन

मधुर कर्णप्रिय
कल-कल निनाद
हरित पल्लवित विटप
शीतल मंद बयार
लता विहग खग
कलरव संग
अतुलित कर श्रृंगार
निजता का कर
तिरस्कार
खग-विहग मनुज
सबकी पालनहार
हे, ममतामयी
    अप्रतिम ..
सौम्य प्रकृति
तुझको नमन
बारम्बार.. बारम्बार

^^ विजय जयाडा ..23.09.13


हमारा हरा-भरा विद्यालय




हमारा हरा-भरा विद्यालय

नित नूतन जीवन..
स्फूर्ति तन मे पाता हूँ,
रोज प्रात मतवाले उपवन में
खुद से ही मिल पाता हूँ,
बीत गया जो बचपन मेरा
उसका दीदार कर पाता हूँ
कल्पना सागर में नित गोते
विद्या उपवन में लगाता हूँ,
मूर्त रूप पाने की चाह में
कुछ नव सृजन पुष्प उगाता हूँ.

  विजय जयाड़ा
 
 
 

घायल बीर बिराजहिं कैसे।



 पर्णरहित सेमल पर रक्तवर्ण पुष्प देखकर मानस का एक प्रसंग याद आ गया ....
  घायल बीर बिराजहिं कैसे।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परस्पर करि अति क्रोधा।।


खुशबु इनमें बेशक नहीं ! ...



 खुशबु इनमें बेशक नहीं !
  मगर कुछ तो बसा है इनमें,
महकाया नही कुदरत ने मगर
      फुर्सत से रंग तो भरे हैं इनमें .... 

.... विजय जयाड़ा

 

दिल्ली





 दिल्ली

यौवन पर चढ़ती
  उजड़ जाती दिल्ली !
सल्तनत बदलती !
     निखर जाती दिल्ली ....
गरजती कभी खामोश
रहती थी दिल्ली !
शंहशाही इशारे पर
      थिरकती थी दिल्ली ...
अब शंहशाह रहे न
सल्तनत ही बाकी !
अब दिखती यहाँ..
सिर्फ रवानी जवानी.
दिल हिन्दुस्तां का
धड़कता यहाँ है
रौनक से लवलेज़
  हर रोज़ खिलती..
कुछ खास दुनिया से
   सबसे निराली !!
सरसब्ज सतरंगी..
   हम सबकी दिल्ली ...

..विजय जयाड़ा 28/10/14
 
 

अथक पथिक




आज तस्वीर संग्रह में ये तस्वीर दिखी ! भावों को शब्द रूप में गूंथने का एक प्रयास " अथक पथिक "...

अथक पथिक

कठिन राह पर
श्रांत क्लांत चित्त 
मजबूर करता है
वहीं रुक जाने को
वहाँ से वापस
लौट जाने को !!
     मगर___
पेड़ पौधे लताएं
    झुरमुट, पंछी__
सारा हरियल वन
नजदीक चला आता है
दुलारता है,
पथ करीब आकर
मंद मंद बतियाता है
लक्ष्य साधित
पथिकों के
       किस्से सुनाता है ___
हौसला बढ़ाता है
उत्साहित हो
उमंगित पथिक
लक्ष्य की तरफ
पुनः बढ़ जाता है !
शायद पथ पर
ठहर गया पथिक
     नहीं कहाना है उसे___
पहुंच गया
जो लक्ष्य पर
    लक्ष्य साधित__
अथक पथिक
   कहलाना है उसे !!

... विजय जयाड़ा 06.12.15


Friday, 4 December 2015

प्रवाह



प्रवाह 

भोला मासूम मृदुल जल
धरती के गर्भ से निकल
लम्बी यात्रा पर चल पड़ा
प्रवाहमय अविरल विकल

खार ही उसकी नियति है !
परवाह नहीं ना ही खबर
उसको तो बढ़ते जाना है
    रूककर नहीं हो जाना मलिन ...

.. विजय जयाड़ा 04/12/15


Thursday, 3 December 2015

तस्वीर बनाने का मुझमें हुनर नहीं,






तस्वीर बनाने का मुझमें हुनर नहीं,
मगर तस्वीर बनाने की कोशिश करता हूँ !
अल्फ़ाज़ों का भी मुझे कोई इल्म नहीं,
फिर भी ज़ज्बातों को लफ़्जों में बयाँ करता हूँ !
मगर आपकी तरफ से ____
हौसला अफजाई में कोई कसर नहीं !!
आपका दिल से शुक्रिया और एहतराम करता हूँ ...

... विजय जयाड़ा


अंतर्मन



अनायास ही गुदगुदाते लम्हे ....

 
                     अपनी रचनाओं को प्रकाशन के उद्देश्य से समाचार पत्र या पत्रिका में नहीं भेजता। लेकिन ...
शुक्रगुजार हूँ, संपादक श्री गणेश जुयाल जी व साप्ताहिक पत्र " न्यू एनर्जी स्टेट " परिवार का, कि वो मेरी रचनाओं को फेसबुक से ही चयनित कर प्रकाशन योग्य मानकर मेरा उत्साहवर्धन करते हैं।
                   पत्र में मेरी रचना "अन्तर्मन " को स्थान देने हेतु " न्यू एनर्जी स्टेट " साप्ताहिक पत्र परिवार का हार्दिक धन्यवाद।

।।अंतर्मन ।।

गऊ सानिध्य
न मिल पाना
महानगरीय मजबूरी है
लेकिन ___
कोई ये मान न ले
गऊ से हमारी दूरी है !
धर्म ग्रन्थों ने मिलकर
गऊ का महत्व
स्वीकारा है
फिर गऊ पर क्यों !!
होता इतना हंगामा है !!

दूध पिया
जननी का हमने
ममता का माँ हम नाम धरें
दूध पिया
गौ का भी हमने
क्यों ममता से इनकार करें !!

इंसान को दूध
पिलाया गऊ ने
मजहब का नहीं भेद किया,
फिर हमने
गऊ को आपस में
मजहब में क्यों बाँट दिया !!

बहुत हुई
गौ धन पर सियासत !!
इस पर अब लगाम करें,
दूध का कर्ज
अन्तर्मन से चुकाएँ___
जीवन अपना धन्य करें...

... विजय जयाड़ा

जीवन सत्य




... जीवन सत्य ....

शून्य से आगे बढ़ा
यौवन फिर वरण किया !
शून्य से तब हो विलग
उनमत्त हो विचरण किया !

जीर्ण फिर काया हुई
काल वो अंतिम पहर सा !
बिसरा दिया था तब जिसे
शून्य को .... स्वीकार किया !

.. विजय जयाड़ा 20.11.15
 
 

सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस में




सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस में
भरे पेट लोगों को फिर जुगाली का बहाना मिल गया,
मगर ____
खाली हंडिया चूल्हे पर रख माँ बहलाती रही और
भूख से बिलखता मासूम भूखे पेट आज फिर सो गया !!

..... विजय जयाड़ा 25.11.15

अब जमाने में मिजाज हुआ खुदगर्ज है...




अब जमाने में मिजाज हुआ खुदगर्ज है,
माकूल हो खुद के, वो बन जाता रिवाज है ! 

सदियों की रवायतें लगा देते हैं दाँव पर !
बाजी उलट गई तो दोष मढ़ते हैं दौर पर !!

.... विजय जयाड़ा


Tuesday, 17 November 2015

आसां नहीं है जमीं से ...




आसां नहीं है जमीं से आसमान हो जाना,
उससे भी कठिन है जमीं से आसमान छू लेना।

पाने की चाहत में क्यों करते हैं मुहब्बत !
किसी की यादों में जीना भी है रब को पा लेना।

... विजय जयाड़ा 17.11.15


Monday, 16 November 2015

तकरीरों में करते हैं जो नफरत की मज़म्मत...



तकरीरों में करते हैं जो नफरत की मज़म्मत,
अमनो अमाँ उनको ही कुचलते देखा !

उकता गए वाइज़ तेरी तकरीरों से अब हम,
जब से तुझे कानून को ... छलते देखा !!

.....विजय जयाड़ा 13.11.15



नई सुबह



|| नई सुबह ||

दिन भर
चलने के बाद
जब थकने लगता है
   तब रात__
नर्म शाम की
स्नेहिल चादर
हवा में लहराकर
उसे पुकारती है
पास बुलाती है
हौले से उढ़ाकर
दुलारती है,
निद्रा के आगोश में
समा जाता है,
रात की घनी छांव में
थका हुआ पथिक
स्वयं को सुरक्षित पाता है
रोज इस तरह
    सो जाता है सूरज __
नई उमंग के साथ
नई सुबह लेकर
सबको जगाने के लिए,
नए उत्साह से
सबके साथ मिलकर
कर्म पथ पर
फिर से चलने के लिए
   नए लक्ष्य संधान के लिए ..

.. विजय जयाड़ा 14.11.15



Wednesday, 11 November 2015

चिराग हमने खूब जलाये, ....



चिराग हमने
खूब जलाये,
तिरगी -ए- शब
 मिट जाने तक,
आओ चिराग अब
     ऐसे जलाएं__
जो रोशन करें
उजालों में छिपे
      अंधेरों के____
मिट जाने तक... 

विजय जयाड़ा 10.11.15


Sunday, 8 November 2015

मुख़्तसर से सफ़र-ए-हयात में




मुख़्तसर से सफ़र-ए-हयात में
जवाब मुखालफत का यूँ दिया
मुखालिफों के फेंके पत्थरों से ही
   एक खूबसूरत मकां बना दिया..

.. विजय जयाड़ा 08.11.15


Thursday, 5 November 2015

अनहद नाद



||| अनहद नाद |||

घर्षण ध्वनियों को
शब्द रूप देकर
कविता में नहीं
उतारना चाहता !!
आहत नाद से इतर
अन्तस् में उठती
ध्वनियों को शब्दों में
ढालना चाहता हूँ ,
आहत नाद भटकाता है !
तृष्णा जगाता है !
मन में इच्छाओं और
वासनाओं का
उपद्रव भड़काता है !
पहुँच जाता हूँ
उस संसार मे
जहाँ मन अटकता नहीं
वहां ध्वनियाँ हैं
लेकिन घर्षण रहित !!
यही है अनहद नाद...
भटकती चित्त वृत्तियों को
नियंत्रित करती
ध्वनियों का संसार !!
अंतस संगीत संसार में
वहीँ रम जाता हूँ
फिर ध्वनियों को
शब्दों का जामा पहनकर
कविता लिख देता हूँ
बस एक शब्द.... " ॐ " ,
बार- बार लिखकर
कविता पूरी कर देता हूँ.

.. विजय जयाड़ा 05.11.15

Wednesday, 4 November 2015

डफली



 डफली

अपनी-अपनी डफली पर
   सब अलग-अलग नाच रहे !
सुर ऐसा दे डफली वाले
     थिरकें सब !! सुर एक रहे ... 

..... विजय जयाड़ा .......


Tuesday, 3 November 2015

अंतर्मन



अंतर्मन

गऊ सानिध्य
न मिल पाना
महानगरीय मजबूरी है
       लेकिन ___
कोई ये मान न ले
  गऊ से हमारी दूरी है !
 
धर्म ग्रन्थों ने मिलकर
गऊ का महत्व
स्वीकारा है
फिर गऊ पर
   क्यों !!
   होता इतना हंगामा है !!

दूध पिया
जननी का हमने
ममता का माँ हम नाम धरें
दूध पिया
गौ का भी हमने
   क्यों ममता से इनकार करें !!

इंसान को दूध
पिलाया गऊ ने
मजहब का नहीं भेद किया,
फिर हमने
गऊ को आपस में
   मजहब में क्यों बाँट दिया !!

बहुत हुई
   गौ धन पर सियासत !!
इस पर अब लगाम करें,
दूध का कर्ज
     अन्तर्मन से चुकाएँ___
   जीवन अपना धन्य करें...
... विजय जयाड़ा

Monday, 2 November 2015

सर्द मौसम और आग उगल रहा है शहर !





सर्द मौसम और आग उगल रहा है शहर !
नफरतों की घनी बसत हो गई है अब वहाँ !

मासूम बचपन मिटटी में सना है अभी भी वहीँ
   चलो, प्यार की फसल फिर से उगाते हैं अब वहाँ !!

... विजय जयाड़ा 02.11.15


Sunday, 1 November 2015

मजबूरी-मुखौटे और जमीर !!



   मजबूरी-मुखौटे और जमीर !!

तोड़ दिया उसने वो दर्पण
बेबसी को दिखाता था
हारा हुआ बोझिल चेहरा
हमेशा उसे दिखाता था,
अब खरीद लिए कुछ
मनचाहे मुखौटे ! और
  एक नया दर्पण !
मौके के मुताबिक
उचित मुखौटा लगाकर
घर से वो निकलता है
मौके पर इस्तेमाल करने को
कुछ दूसरे मुखौटे भी
  अपने संग रखता है !
अलग-अलग मुखौटों से
समाज में स्वीकारा
और इज्जत पाता है,
नया दर्पण उसकी
    बेबसी को नहीं बल्कि__
रुत्बा बयान करता है,
मुखौटे से ढ़का लेकिन
इच्छित प्रतिबिम्ब दिखाकर
हमेशा खुश रखता है
मगर !! हर रोज
एक लम्बी आह भरकर
कल की तैयारी में
मुखौटे सिराहने रखकर
वो सो जाता है,
   लम्बे समय के बाद !!
मर चुका जमीर
फिर जीवित हो उठा है
उसको बार-बार पुकार रहा है
अंतर्द्वंद्व मे उलझा
   सो नहीं पा रहा है !!
          क्योंकि उसे ____
कल मुख्य अतिथि की
भूमिका निभानी है
मंच की शोभा बढानी है,
मुखौटों में रहकर समाज को
भ्रमित करने वाले लोगों से
समाज को जागृत
करने पर आयोजित
   संगोष्टी उद्घाटित करनी है !! 

... विजय जयाड़ा 01.11.15


Friday, 30 October 2015

विचलन !!



 विचलन !!

अभाव उपेक्षा से
त्रस्त होकर मानव,
अक्सर विचलित__
उदास हो जाता है।
काँटो की सेज पर
रह कर भी__
सुकोमल गुलाब,
सबको हंसता दिख जाता है।
इठलाता है
सुगंधित उपवन,
जब भंवरा
फूलों पर मंडराता है !
उड़ जाता है
दुर्गंध की तरफ !
जब कीचड़ में
अविचलित___
कमल को पाता है !!

.. विजय जयाड़ा 30.10.15

Thursday, 29 October 2015

अमर बेल



अमर बेल

कुछ जड़ हीन बेलें
वृक्ष पर आश्रय पाती हैं
आश्रय दाता का
जीवन रस पीकर__
ऊंचा उठकर
उसको ही झुकाना चाहती है,
खुद के विस्तार की चाहत में
उपकार भुला देती है !
खुद हरियल होने की जिद में
आश्रय दाता को
निष्प्राण कर सुखा देती हैं !!
बहुत हैं ऐसी बेलें
जो समाज पर पनपती हैं
उस पर छा जाती हैं
ऊँची उठती हैं
वर्चस्व की चेष्टा में
उसी समाज को निगल चाहती हैं__
जिसने उसे आश्रय दिया
पोषित किया !!
जिसका जीवन रस पीकर
उसने जीवन जिया !!
शायद, यही आसान तरीका है !!
खुद को स्थापित करने का
“ अमर बेल “ बनकर
जीते जी ! अमर हो जाने का !!

.. विजय जयाड़ा 29.10.15


Wednesday, 28 October 2015

मजहब बहुत हैं दुनिया में ..



मजहब बहुत हैं दुनिया में
नया मजहब नहीं बनाना चाहिए,
जोड़ दे जो आपस में सबको
अब धागा एक ऐसा बनाना चाहिए ....

.. विजय जयाड़ा 28.10.15


Tuesday, 27 October 2015

माशूका की जुल्फों में क्यों कैद है शायरी !



 
माशूका की जुल्फों में क्यों कैद है शायरी !
मुफलिसों को भी अल्फाजों की उड़ान दो. 

तगाफुल की आग जल रही है मुफलिसी !
अपने आशार में मुफलिसों को जुबान दो.

दुष्यंत और अदम हम सभी को पुकारते !
शायरी को अब नया इंकलाबी रुझान दो. 

... विजय जयाड़ा 27.10.15



Sunday, 25 October 2015

भूखे बहुत हैं मेरे मुल्क में ..





हालात-ए-हाज़रा पर अर्ज़ है.. 
भूखे बहुत हैं मेरे मुल्क में
  पैरवी उनकी भी होनी चाहिए,
बहुत हुई मजहब की बातें
  अब रोटी पर चर्चा होनी चाहिए !
मजहब गर है रोटी से पहले
  मजहब में रंगा सब होना चाहिए !
आब-ओ-हवा हद में ही रहें
   उनका भी मजहब तय होना चाहिए !!

... विजय जयाड़ा 25.10.15

Saturday, 24 October 2015

अदब की आड़ में..





अदब की आड़ में जज्बातों की
  तिजारत वो करते हैं !
दिल ले लेते हैं
      मगर___
    दिल के बदले में ....
   दाग-ए-दिल दिया करते हैं !!

... विजय जयाड़ा 24.10.15


Friday, 23 October 2015

अनजान सफर


---अनजान सफ़र---

हवाओं से मिल बूंदों ने
समंदर से दूर
  उड़ जाने की रची,
अनजान सफ़र पर
उड़ा ले गयी हवाएं
  ठौर बिन बूँदें नम हुई !
विरह में अकुलाई बहुत
बेचैन मन भारी हुआ
टकराई पहाड़ से झोंखा बन,
     द्रवित हो___
तपती धरती पर बिखरकर
   अनजान सफ़र का अंत हुआ !! 


.. विजय जयाड़ा



Tuesday, 20 October 2015

दैरोहरम में मजहबों को ....



दैरोहरम में मजहबों को
कैद करने वालों !
फिरकापरस्त तहरीरों से
   इंसान बांटने वालों !!
    कहते हैं कि___
मजलूम की मदद से
मिलता सवाब है,
किसी मजलूम की मदद में
   अपने हाथ तो बढ़ाओ !!

.. विजय जयाड़ा 


Sunday, 18 October 2015

हम उदास हो जाते हैं अक्सर...



हम उदास हो जाते हैं अक्सर
किसी के दूर चले जाने के बाद !
बेशक दूर चला जाता है मुसाफिर
मगर ___
सुकूँ पाता है घर लौट आने के बाद।

.. विजय जयाड़ा 18.10.15


Thursday, 15 October 2015

शक की दीवारों पर किसी को यूँ न बिठा दीजिये


 
 
 
शक की दीवारों पर किसी को यूँ न बिठा दीजिये
दाना उठा ले जाएगा मिलेगा हम को कुछ भी नहीं !
बेफिक्र हो के मिल के लें अब जीवन का हम मजा
शक की दीवारें ऊँची कर हासिल होगा कुछ भी नहीं !

... विजय जयाड़ा





Wednesday, 14 October 2015

जिन्दा इंसान भी बुत होने लगे जब से..




जिन्दा इंसान भी बुत होने लगे जब से
यारी कर ली, हमने भी पत्थरों से तब से !!

.. विजय जयाड़ा


Tuesday, 13 October 2015

परवाज़ परिंदों की भी एक हद में ही रह जाए ...



परवाज़ परिंदों की भी एक हद में ही रह जाए
  अगर आसमान भी परिंदों में आपस में बंट जाए !
क्यों सरहद बनी जो बांटती है दिलों और मुल्कों को
  काश !! हर इंसान भी सरहद छोड़ कर परिंदा हो जाए !!

.. विजय जयाड़ा 13.10.15


Monday, 12 October 2015

ख्वाइश


..... ख्वाइश ...

डाल से टूटा है तो
अब बिखर ही जाएगा !
बहा ले जिस तरफ पानी
बहता ही जाएगा !
शाख पर था
हवा में गीत गाता था
थके राही को चादर
छाँव की ओढाता था,
डाल से टूटा है अब
बिखरना नियति है उसकी
मगर बिखरने से पहले
सहारा बन पाए __
ख्वाइश अब भी है उसकी !!

विजय जयाड़ा 
12.10.15


Saturday, 10 October 2015

भावातिरेक


...... भावातिरेक .....

भावों के अतिरेक में अंतर्मन
जब शब्दों को टटोलता है,
शब्दों का कुनबा जाने क्यों
  कहीं अंतस में गुम जाता है !

तस्वीर सजीव हो उठती हैं
 पर्वत बाहें फैलाने लगते हैं,
घाटियाँ पसार गोद अपनी
स्नेह लुटाने को उमड़ती हैं. 


उलाहना दिया रास्तों ने तभी
  वादा कर क्यों तुम आये नहीं !
सूना दिन और रात गुजरती हैं
  बाट निहारते हम सोये नहीं !


.. विजय जयाड़ा 10.10.15


Tuesday, 6 October 2015

बेटी : “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ .लघु कथा


बेटी 

“ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “


          “ देख !! तपती गर्मी में भाई स्कूल से आये हैं !! जल्दी से भाइयों के लिए ठंडी लस्सी बना और खाना परोस !!! “ 

       तपती गर्मी में स्कूल से आई टपकते पसीने को पोंछती नेहा ने अभी घर के अन्दर कदम भी नही रखा था कि पड़ोसन से गप्पे करती माँ तल्ख़ लहजे में बोली. नेहा के लिए ये सब कोई नयी बात नहीं थी. लेकिन मन ही मन सोचती कि वो भी तो तपती गर्मी में भाइयों की तरह ही स्कूल से आती है !!
        आज नेहा मन ही मन खुश थी, भाइयों की जिद्द पर ही सही घर पर दो-चार नहीं !! पूरे बारह समोसे आये थे !! लेकिन ये क्या !! माँ ने सारे समोसे दोनों भाइयों को ही दे दिए !! नेहा ललचाई से टुकुर-टुकुर भाइयों को समोसे खाते देख रही थी !! 

          हमेशा की तरह उसके हिस्से में समोसों की टूटी सख्त किनारी ही आ सकी !! मन मसोस का रह गयी नेहा !! कह भी क्या सकती थी माँ ने बचपन से ही पहले भाइयों को मन भर कर खिला कर बाद में जो बच जाए उसे खाकर संतोष कर लेने का “संस्कार “ ये कहते हुए डाल दिया कि “लड़की जात है पता नही ससुराल कैसी मिले !! फिर ससुराल वाले हमें उलाहना देते फिरेंगे !! “
          इन्ही सब हालातों में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, नेहा को अहसास ही न हुआ !! वह ब्याह कर ससुराल आ गयी. विवाह की औपचारिकताओं के बाद, अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुबह उठकर घर के काम में लग गयी, सासु माँ उसे रोकती पर वो सहजता और तन्मयता से फिर से काम में लग जाती.         

        भोजन का समय हुआ तो डाइनिंग टेबल पर सबके लिए खाना करीने से लगा स्वयं मायके में मिले, सबसे अंत में खाने के “संस्कार” का अनुसरण करती हुई रसोई में बचा-खुचा काम निपटाने लगी !!
            “ नेहा !!..नेहा !!!” नेहा को रसोई में गए कुछ ही समय हुआ था कि सासू माँ की ऊंचे स्वर में आवाज सुनाई दी !! नेहा का तो घबराहट से बुरा हाल था !! मन ही मन नकारात्मक बातें ही उसके मन में आ रही थी .., पता नही खाना बनाने में उससे क्या गलती हो गयी ??. अब तो, उसको और उसके मायके वालों को क्या-क्या उट पटांग सुनने को मिलेगा !! 

            खैर डरी-सहमी और सिकुड़ी, डाइनिंग टेबल के पास अपराध बोध में, नजरें झुकाकर, सासु माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गयी, लगभग हकलाते हुए घबराहट भरे स्वर में बोली, “ जी...जी .. माँ जी “
          ” हम कब से, साथ में भोजन करने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं !! कुर्सी सरकाकर नेहा के लिए जगह बनाती सासु माँ ने शिकायती मगर ममता भरे लहजे में कहा. वह सांसत में थी !! मायके में मिले “संस्कारों” की दुहाई देती है तो मायके वालों के बारे में पता नही क्या-क्या उल्टा सोचेंगे !! “ लाइए, माँ जी.. .आप आराम से बैठिये, मैं परोस लेती हूँ !! नेहा स्वयं को सहज व संयत करने का प्रयास करती हुई. भोजन परोसने लगी !!
          सासु माँ के इस अपनत्व भरे व्यवहार पर नेहा के आँखों में ख़ुशी के आंसू आने को थे !! लेकिन मायके के “संस्कारों “ की खिल्ली न उड़ाने लगें, मन ही मन यह सोचते हुए वो आंसुओं को छिपाने के प्रयास में स्वयं से लगातार जूझ रही थी.

        शायद ! आज नेहा को अपने अस्तित्व व महत्व का करीब से अहसास हुआ था !! लेकिन वो अब भी मायके और ससुराल, दो परिवारों के बीच, “ सम्मान और संबंधों का मजबूत सेतु “ बना रहना चाहती थी .
                                                      .. विजय जयाड़ा 

दरस


दरस !!

झील से
   नयन उसके ...
घनी घटायें
   केश हैं ..
चाल
उसकी
हिरनी सी
और
होष्ठ हैं
  गुलाब से ..
पुष्ट
   यौवन...
    गदराया हुआ ..
मस्त और
    मदमाता हुआ....
   दरस है !!
  देहयष्टि का,
   वासना से पूरित !!
या
  बोध है !! सौंदर्य का !!

विजय जयाड़ा

कर्मपथ


*कर्मपथ*

  करना !!
   करुण__
व्यथित गान !!
ये शोभित नही
   मानव तुझे....
मनुज है
निरा पत्थर
नही,
जो
     स्थिर धरा पर.. ..
  जाग !!
कर्मपथ
तुझको
पुकार रहा,
पुरुषार्थ
बदलने भाग्य
फिर
   आमंत्रित कर रहा...
   बिसर न !!
कर्म और
पुरुषार्थ से
बनता भाग्य है..
त्याग,
कुंठित
नैराश्य गान,
कर्मवीरों पर
   शोभित नहीं !!
बढ़ निरंतर
कर्मपथ पर,
   विजय ध्वजा फहरा ... 

विजय जयाड़ा