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Thursday, 4 August 2016

पत्थरों के भी अपने मजहब होते,




राह चलते, खेत में धान रोपाई के बाद दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में पत्थर की आड़ लेकर भोजन करते परिवार को देखकर सोचता हूँ...
काश ! पत्थरों के भी अपने मजहब होते,
तो दैर-ओ-हरम की दीवारों के नज़ारे कुछ अलग होते !!
... विजय जयाड़ा
(दैर-ओ-हरम= मंदिर-मस्जिद आदि इबादत खाने)

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