राह चलते, खेत में धान रोपाई के बाद दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में पत्थर की आड़ लेकर भोजन करते परिवार को देखकर सोचता हूँ...
काश ! पत्थरों के भी अपने मजहब होते,
तो दैर-ओ-हरम की दीवारों के नज़ारे कुछ अलग होते !!
... विजय जयाड़ा
(दैर-ओ-हरम= मंदिर-मस्जिद आदि इबादत खाने)
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