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Sunday, 15 May 2016

मैं सत्य हूँ .....



   मैं सत्य हूँ

संवेद्य हूँ
उद्घाटित स्वयं को करता नहीं,
अकिंचन की आस हूँ
चुनौती प्रस्तुत करता हूँ सदा,
परत दर परत उघड़ना ही नियति है
अनवरत चलते हुए.
अविच्छिन्न बिम्ब हूँ
विच्छिन्न सा लगता सदा,
आडम्बरों और भ्रम-जाल को
तोड़ने का बल मुझमे बसा.
सार बाल-तरुण-यौवन-बुढ़ापे का
सब मुझमें रमा !!
हारे हुए की साँस हूँ
अनादि .. अनंत ..अविनाशी हूँ ..
अडिग हूँ........मैं सत्य हूँ .....

  विजय जयाड़ा . 14/05/14

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