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Tuesday, 17 May 2016

स्नेहासिक्त जन-जीवन हो......



स्नेहासिक्त जन-जीवन हो

दंभ, दर्प यथेष्ट नही
अभिप्रेत आचरण उचित नही,
संत्रास मुक्त जन-जीवन हो
अतिरंजना स्पृहणीय नहीं.
अनुभूतिसिक्त उदयांचल हो,
पुष्पित वसुधा के
ममतामयी आँचल में,
करुणापूरित अस्तांचल हो.
त्याग संवलित मनोदशा
अनावरणित जन-जीवन हो.
सुर-सरिता लावण्य भरी
शुभ भावों का आरोहण हो,
त्याग परस्पर बैर भाव..
    स्नेहासिक्त जन-जीवन हो...... 

^^ विजय जयाड़ा 17/05/14

( दंभ= इगो दर्प =अभिमान , यथेष्ट.=उचित, अभिप्रेत= जानबूझकर intentionally, संत्रास = डर,भय, अतिरंजना= अतिश्योक्ति , स्पृ्हणीय = श्रेष्ठ . उत्तम )

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