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Friday, 20 May 2016

मजदूर ..



मजदूर ..

काम की तलाश में
मुंह अँधेरे
भोला निकल पड़ा,
चौक पर आते थे
      तलाश में मजदूरों की .....
गाड़ियों से उतरते थे
लकधक् लिबास में,
वो देखता हर एक को
हसरत भरी निगाह से,
तलाश मजदूर की थी मगर
दिल के सभी तंग थे !
आँखों में शाम को
इंतज़ार में खड़े
बच्चों की तस्वीर थी !
दिन चढ़ रहा था
काम न मिल पाने की
बैचेनी का ज्वार था ,
आखिर में उदास भोला को
काम मिल ही गया !
बुझती आँखों में जैसे
सुन्दर सपना संवर गया.
शाम को दुकान पर
सीधे पहुँच गया,
चूल्हा जलाने की जुगत में
कुछ लिया, कुछ न ले सका.
बच्चों को खिला
अधपेट खा के पानी पी लिया.
भरपेट खा के, दुनिया बचाती है
गाडी, मकान के लिए !!
अनिश्चितता में कल की,
थाली की ही दो रोटियां बचा के
भोला, निश्चिन्त सो गया ! निश्चिंत सो गया !!

^^ विजय जयाड़ा.. 21.05.14


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