मूढ़ मन
सदियों से अविरल सघन
अपनी धुन में सदा मृदुल मगन
जड़ चेतन सबका का प्राण वो
बुझाती विचलित मन की अगन ...
अपनी धुन में सदा मृदुल मगन
जड़ चेतन सबका का प्राण वो
बुझाती विचलित मन की अगन ...
निरंतर बह रही प्रवाहमयी
नहीं उसके मन में भेद कोई
वात्सल्यमयी हर बूँद उसकी
पराया उसके लिए नहीं है कोई ..
नहीं उसके मन में भेद कोई
वात्सल्यमयी हर बूँद उसकी
पराया उसके लिए नहीं है कोई ..
घाट निषेध न उसने किया
पास आकर न प्यासा कोई रहा
सत्य बिखरा माँ गंगे ! तट तेरे
मन मूढ मेरे ! क्यों भटकता रहा !
.. विजय जयाड़ा
पास आकर न प्यासा कोई रहा
सत्य बिखरा माँ गंगे ! तट तेरे
मन मूढ मेरे ! क्यों भटकता रहा !
.. विजय जयाड़ा
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