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Tuesday, 17 November 2015

आसां नहीं है जमीं से ...




आसां नहीं है जमीं से आसमान हो जाना,
उससे भी कठिन है जमीं से आसमान छू लेना।

पाने की चाहत में क्यों करते हैं मुहब्बत !
किसी की यादों में जीना भी है रब को पा लेना।

... विजय जयाड़ा 17.11.15


Monday, 16 November 2015

तकरीरों में करते हैं जो नफरत की मज़म्मत...



तकरीरों में करते हैं जो नफरत की मज़म्मत,
अमनो अमाँ उनको ही कुचलते देखा !

उकता गए वाइज़ तेरी तकरीरों से अब हम,
जब से तुझे कानून को ... छलते देखा !!

.....विजय जयाड़ा 13.11.15



नई सुबह



|| नई सुबह ||

दिन भर
चलने के बाद
जब थकने लगता है
   तब रात__
नर्म शाम की
स्नेहिल चादर
हवा में लहराकर
उसे पुकारती है
पास बुलाती है
हौले से उढ़ाकर
दुलारती है,
निद्रा के आगोश में
समा जाता है,
रात की घनी छांव में
थका हुआ पथिक
स्वयं को सुरक्षित पाता है
रोज इस तरह
    सो जाता है सूरज __
नई उमंग के साथ
नई सुबह लेकर
सबको जगाने के लिए,
नए उत्साह से
सबके साथ मिलकर
कर्म पथ पर
फिर से चलने के लिए
   नए लक्ष्य संधान के लिए ..

.. विजय जयाड़ा 14.11.15



Wednesday, 11 November 2015

चिराग हमने खूब जलाये, ....



चिराग हमने
खूब जलाये,
तिरगी -ए- शब
 मिट जाने तक,
आओ चिराग अब
     ऐसे जलाएं__
जो रोशन करें
उजालों में छिपे
      अंधेरों के____
मिट जाने तक... 

विजय जयाड़ा 10.11.15


Sunday, 8 November 2015

मुख़्तसर से सफ़र-ए-हयात में




मुख़्तसर से सफ़र-ए-हयात में
जवाब मुखालफत का यूँ दिया
मुखालिफों के फेंके पत्थरों से ही
   एक खूबसूरत मकां बना दिया..

.. विजय जयाड़ा 08.11.15


Thursday, 5 November 2015

अनहद नाद



||| अनहद नाद |||

घर्षण ध्वनियों को
शब्द रूप देकर
कविता में नहीं
उतारना चाहता !!
आहत नाद से इतर
अन्तस् में उठती
ध्वनियों को शब्दों में
ढालना चाहता हूँ ,
आहत नाद भटकाता है !
तृष्णा जगाता है !
मन में इच्छाओं और
वासनाओं का
उपद्रव भड़काता है !
पहुँच जाता हूँ
उस संसार मे
जहाँ मन अटकता नहीं
वहां ध्वनियाँ हैं
लेकिन घर्षण रहित !!
यही है अनहद नाद...
भटकती चित्त वृत्तियों को
नियंत्रित करती
ध्वनियों का संसार !!
अंतस संगीत संसार में
वहीँ रम जाता हूँ
फिर ध्वनियों को
शब्दों का जामा पहनकर
कविता लिख देता हूँ
बस एक शब्द.... " ॐ " ,
बार- बार लिखकर
कविता पूरी कर देता हूँ.

.. विजय जयाड़ा 05.11.15

Wednesday, 4 November 2015

डफली



 डफली

अपनी-अपनी डफली पर
   सब अलग-अलग नाच रहे !
सुर ऐसा दे डफली वाले
     थिरकें सब !! सुर एक रहे ... 

..... विजय जयाड़ा .......


Tuesday, 3 November 2015

अंतर्मन



अंतर्मन

गऊ सानिध्य
न मिल पाना
महानगरीय मजबूरी है
       लेकिन ___
कोई ये मान न ले
  गऊ से हमारी दूरी है !
 
धर्म ग्रन्थों ने मिलकर
गऊ का महत्व
स्वीकारा है
फिर गऊ पर
   क्यों !!
   होता इतना हंगामा है !!

दूध पिया
जननी का हमने
ममता का माँ हम नाम धरें
दूध पिया
गौ का भी हमने
   क्यों ममता से इनकार करें !!

इंसान को दूध
पिलाया गऊ ने
मजहब का नहीं भेद किया,
फिर हमने
गऊ को आपस में
   मजहब में क्यों बाँट दिया !!

बहुत हुई
   गौ धन पर सियासत !!
इस पर अब लगाम करें,
दूध का कर्ज
     अन्तर्मन से चुकाएँ___
   जीवन अपना धन्य करें...
... विजय जयाड़ा

Monday, 2 November 2015

सर्द मौसम और आग उगल रहा है शहर !





सर्द मौसम और आग उगल रहा है शहर !
नफरतों की घनी बसत हो गई है अब वहाँ !

मासूम बचपन मिटटी में सना है अभी भी वहीँ
   चलो, प्यार की फसल फिर से उगाते हैं अब वहाँ !!

... विजय जयाड़ा 02.11.15


Sunday, 1 November 2015

मजबूरी-मुखौटे और जमीर !!



   मजबूरी-मुखौटे और जमीर !!

तोड़ दिया उसने वो दर्पण
बेबसी को दिखाता था
हारा हुआ बोझिल चेहरा
हमेशा उसे दिखाता था,
अब खरीद लिए कुछ
मनचाहे मुखौटे ! और
  एक नया दर्पण !
मौके के मुताबिक
उचित मुखौटा लगाकर
घर से वो निकलता है
मौके पर इस्तेमाल करने को
कुछ दूसरे मुखौटे भी
  अपने संग रखता है !
अलग-अलग मुखौटों से
समाज में स्वीकारा
और इज्जत पाता है,
नया दर्पण उसकी
    बेबसी को नहीं बल्कि__
रुत्बा बयान करता है,
मुखौटे से ढ़का लेकिन
इच्छित प्रतिबिम्ब दिखाकर
हमेशा खुश रखता है
मगर !! हर रोज
एक लम्बी आह भरकर
कल की तैयारी में
मुखौटे सिराहने रखकर
वो सो जाता है,
   लम्बे समय के बाद !!
मर चुका जमीर
फिर जीवित हो उठा है
उसको बार-बार पुकार रहा है
अंतर्द्वंद्व मे उलझा
   सो नहीं पा रहा है !!
          क्योंकि उसे ____
कल मुख्य अतिथि की
भूमिका निभानी है
मंच की शोभा बढानी है,
मुखौटों में रहकर समाज को
भ्रमित करने वाले लोगों से
समाज को जागृत
करने पर आयोजित
   संगोष्टी उद्घाटित करनी है !! 

... विजय जयाड़ा 01.11.15