“ हम ” से “ मैं ”
पतझड़ी चीड़ की नुकीली
पत्तियों को समेटकर
जंगली फिसलपट्टी पर बिखेर
कुछ बोरी में भरकर
मनचाही ऊँचाई पर
फूलती सांस और काँधे पर
पत्तियों से भरे बोरे सहित पहुंचना
बोरे पर बैठकर फिसलकर
जंगली टेढ़ी-मेढ़ी
फिसलपट्टी से भटककर
ठूंठ से टकराना, काँटों में उलझना
चीड़ की नुकीली पत्तियों का
नाजुक पोरों में शूल सा चुभना
साथियों का काँटों से निकालकर
जोर-जोर से हँसना !!
जिस गहराई से ऊँचाई पर चढ़े थे
बार-बार चढ़कर
वहीँ फिसल कर आ जाना
बहुत आह्लादित करता था !!
अब सिर्फ बसंत आह्लादित करता है !!
नहीं सुहाता अब पतझड़
ऊँचाई से नीचे आना
सांस फुलाती डगर
कतई स्वीकार नहीं !!
शायद !! अब खुद को
सबसे अलग समझने लगा हूँ !
हरदम खुद को अकेला
असुरक्षित पाने लगा हूँ !!
जरा सी चुभन डराने लगी है अब
क्योंकि “हम “ से बदलकर
शायद !! “मैं” होने लगा हूँ !!!
... विजय जयाड़ा 29.01.15
पत्तियों को समेटकर
जंगली फिसलपट्टी पर बिखेर
कुछ बोरी में भरकर
मनचाही ऊँचाई पर
फूलती सांस और काँधे पर
पत्तियों से भरे बोरे सहित पहुंचना
बोरे पर बैठकर फिसलकर
जंगली टेढ़ी-मेढ़ी
फिसलपट्टी से भटककर
ठूंठ से टकराना, काँटों में उलझना
चीड़ की नुकीली पत्तियों का
नाजुक पोरों में शूल सा चुभना
साथियों का काँटों से निकालकर
जोर-जोर से हँसना !!
जिस गहराई से ऊँचाई पर चढ़े थे
बार-बार चढ़कर
वहीँ फिसल कर आ जाना
बहुत आह्लादित करता था !!
अब सिर्फ बसंत आह्लादित करता है !!
नहीं सुहाता अब पतझड़
ऊँचाई से नीचे आना
सांस फुलाती डगर
कतई स्वीकार नहीं !!
शायद !! अब खुद को
सबसे अलग समझने लगा हूँ !
हरदम खुद को अकेला
असुरक्षित पाने लगा हूँ !!
जरा सी चुभन डराने लगी है अब
क्योंकि “हम “ से बदलकर
शायद !! “मैं” होने लगा हूँ !!!
... विजय जयाड़ा 29.01.15
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