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Saturday, 27 February 2016

बसंत की चाहत है अगर ...



बसंत की चाहत है अगर
पतझड़ निभाना ही होगा,
उजालों की जिद है तो फिर
    अंधेरों से गुजरना ही होगा ...

... विजय जयाड़ा
 


Wednesday, 24 February 2016

घात लगा बैठा है दुश्मन ...





घात लगा बैठा है दुश्मन
  मौका देख रहा अविराम !
   मत भूलो !!
अहम् और स्वार्थ के कारण
   मानवता रही सदियों तक गुलाम !!
.. विजय जयाड़ा 
 
               विद्यालय परिसर में पेड़ पर पत्तों और झाड़ियों की ओट में शिकार की तलाश में घात लगाये ये बिल्ली रोज की तरह कल भी दिखी !! रोज कबूतरों को ऐसे स्थान पर दाना देता हूँ जहाँ ये बिल्ली उनको नुकसान न पहुंचा सके. लेकिन सोचता हूँ..कब तक कबूतरों को इस बिल्ली से बचा पाऊंगा !! क्योंकि ये बिल्ली घात लगाने का स्थान बदलती रहती है !! बिल्ली का भी दोष नहीं ! प्राकृतिक रूप से हिंसक है .. अतः कबूतरों को स्वयं भी सजग रहना होगा !

Saturday, 20 February 2016

“ हम ” से “ मैं ”



“ हम ” से “ मैं ”

पतझड़ी चीड़ की नुकीली
पत्तियों को समेटकर
जंगली फिसलपट्टी पर बिखेर
कुछ बोरी में भरकर
मनचाही ऊँचाई पर
फूलती सांस और काँधे पर
पत्तियों से भरे बोरे सहित पहुंचना
बोरे पर बैठकर फिसलकर
जंगली टेढ़ी-मेढ़ी
फिसलपट्टी से भटककर
ठूंठ से टकराना, काँटों में उलझना
चीड़ की नुकीली पत्तियों का
नाजुक पोरों में शूल सा चुभना
साथियों का काँटों से निकालकर
जोर-जोर से हँसना !!
जिस गहराई से ऊँचाई पर चढ़े थे
बार-बार चढ़कर
वहीँ फिसल कर आ जाना
बहुत आह्लादित करता था !!
अब सिर्फ बसंत आह्लादित करता है !!
नहीं सुहाता अब पतझड़
ऊँचाई से नीचे आना
सांस फुलाती डगर
कतई स्वीकार नहीं !!
शायद !! अब खुद को
सबसे अलग समझने लगा हूँ !
हरदम खुद को अकेला
असुरक्षित पाने लगा हूँ !!
जरा सी चुभन डराने लगी है अब
क्योंकि “हम “ से बदलकर
शायद !! “मैं” होने लगा हूँ !!!
... विजय जयाड़ा 29.01.15

शहर वही है मगर ....



  शहर वही है मगर बदला बदला सा क्यों है !
  इंसान भी वही मगर जुदा-जुदा सा क्यों हैं !

  मस्त मगन वही भजन सुर वही अज़ान का !
  मगर सुर बंटे हुए चमन वीरान सा क्यों है ! 

  हंसी उलास तीज त्योहार सब अतीत से ,
   मगर दिलों को बाँटती दीवारें बन गई क्यों हैं !! 

.. विजय जयाड़ा

क्या लिखूँ !!



  क्या लिखूँ !!

  कसमसाती है कलम !
कुछ लिखूँ
        मगर ____
  लिखूँ ! मगर क्या लिखूँ !
दिन को दिन लिखूँ
  दिन को रात लिखूँ !
   सोचता हूँ क्या लिखूँ !!
बसंत को बसंत लिखूँ
पतझड़ लिखूँ ! या
   पतझड़ को बसंत लिखूँ !!
कसमसाती है कलम !
   कुछ लिखूँ !!
सच को सच या
सच को झूठ लिखूँ !
        या _____
झूठ पर सच का
मुलम्मा चढ़ा कर लिखूँ !!
    झूठ-सच___
सब मन-मस्तिष्क में
सोचता क्यों ! क्या लिखूँ !
कसमसाती है कलम !
कुछ लिखूँ ...
ना बड़बोलों की जय लिखूँ
ना अपनी ही मैं जय लिखूँ
      अगर मैं कुछ लिखूँ___
हर धड़कन में बसने वाली
       भारत मां तेरी जय लिखूँ___
   भारत भूमि की जय लिखूँ ....

.. विजय जयाड़ा 20.02.16

Thursday, 11 February 2016

मिला न सुकून इबादत खानों में तेरे



मिला न सुकून इबादत खानों में तेरे
  इंसान बांटा जाता है अब वहाँ !
मिला जो सुकून खुले आसमान तले
   वो बंद इबादत खानों में कहाँ !!

.. विजय जयाड़ा


Sunday, 7 February 2016

अत्र कुशलम् तत्रास्तु



||अत्र कुशलम् तत्रास्तु ||

        मित्र को स्नेह मिलन.... .
परिवार में
बड़ों को प्रणाम कहना
छोटों को प्यार
अन्य सभी को नमस्कार कहना,

   अत्र कुशलम् तत्रास्तु....
पूरी सर्दी तुम्हारी
चिट्ठी की इंतजार में बीती !
क्यों बिसरा दी तुमने
बचपन को वो प्रीती !!
ना चिट्ठी ना पत्री भेजी
ना कोई खबर सार ही पूछी
दोस्त को भूल गए हो  शायद
पोस्टकार्ड पर__
दो लाइन भी नहीं लिख भेजी  !!

हुई  हड़ताल खतम अब
तुम चिन्ता ना करना
अपने, आस-पास के
       हाल समाचार___
चिट्ठी में लिख कर भेजना,

याद आता है अब भी
जंगल में मिलकर जाना
पेड़ों से फिसलकर
चोटी पर पहुंच, इतराना,

बदल रहा है मौसम
अपना ख्याल रखना
पत्र मिलते ही
तुरंत जवाब लिखना,

    थोड़े लिखे को__
ज्यादा समझना
पास पड़ोस में
सबको यथा योग्य
प्यार और प्रणाम कहना,

कुशलता के साथ
पत्र की प्रतीक्षा में
तुम्हारा लंगोटिया यार 
   विजय जयाड़ा दिल्ली में   ...

... विजय जयाड़ा 07.02.16

Friday, 5 February 2016

आहट



....आहट .....

जब अंगडाई ली
      मन मचला__
रोके न
उसको कोई..
उमंगित हुआ
तब अंग-अंग,
     ऋतुराज__
आगमन की
     जब आहट हुई ..

.. विजय जयाड़ा 05.02.16