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Saturday, 5 November 2016

दरकता पहाड़ !


दरकता पहाड़ !

पहाड़ के सीने पर
चलते फौलादी औजार
निरंतर प्रहार !
झेलता बेबस पहाड़
क्रोधित शिव तांडव
विपदा बार-बार
निरीह बनते
  प्रकोप के शिकार
फटते बादल
उफनती नदियां
गाड गधेरों में सैलाब
  दरक रहा है पहाड़ !
हर तरफ चीख पुकार
भविष्य अंधकार
चहुँदिश हाहाकार
वातानुकूलित कक्षों में गोष्ठियां
सरकारी इमदाद बार बार
पीड़ित बेघर बेज़ार !
" कारिंदों " की चांदी हर बार
चर्चा वही बारम्बार
  क्यों रीते घर !
  ताले गुलजार !!
  खिसक रहा है पहाड़ !
   क्यों दरक रहा है पहाड़ !!

.... विजय जयाड़ा


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